बीमारी के जानलेवा हमले के दौरान आलोक जी से मेरी आख़िरी मुलाक़ात कुछ महीने पहले सीएनईबी न्यूज़ चैनल में हुई। बेहद प्यार और अपनेपन से अलग ले जाकर ख़ूब सारी बातें की... बत्रा जाना है यार, बेहद मुश्किल लड़ाई में उलझा हूं, मौत से जंग है, हार जीत नहीं आखिरी सांस तक लड़ने की फिक्र है... शायद उनके ये शब्द, सभी पत्रकारों के लिए एक पैगाम है।
कुछ नाम ऐसे होते हैं जो जितने सुने जाते हैं उतना ही उनसे मिलने का मन भी होता है और उनका प्रभाव भी दिल पर बढता रहता है। इसे उनका व्यक्तित्व कहें या उनका नसीब। कुछ ऐसा ही अनुभव हमे किसी के बारे में हुआ । आंखो देखी में नलिनी सिंह के सानिध्य में क्राइम और जनूनी पत्रकारिता की ए, बी, सी डी पढ़ने की कोशिश और बाद में सहारा में पूरी तरह क्राइम और खोजी पत्रकारिता के समुंदर में गोते लगाते हुए एक नाम बहुत सुनते थे- आलोक तोमर। ना जाने क्यों या तो लोगों ने हमे डराने की ठान ली थी या उनकी मार्किटिंग बेहद प्रभावी थी या फिर हमारे लिए आलोक तोमर नाम नहीं बल्कि एक ज़रूरत बनता गया।
सहारा के बाद इंडिया टीवी गये तो वहां भी कुछ कर गुज़रने के नाम पर मिसाल दी गई कि आलोक जी से कुछ सीखों। यानि एक बार फिर आलोक तोमर हमारे लिए मानों मील का पत्थर बन कर सामने आ चुके थे। कई साल गुज़रने के बाद लगभग पांच-छह साल बाद मुकेश कुमार जी के आशीर्वाद से एस वन ज्वाइन करने का मौक़ा मिला। चैनल से पहले सीनियर इंडिया की मैग्जीन आ चुकी थी और उसको आलोक तोमर जी ही संचालित कर रहे थे। ज्वाइन करते ही ऊपर उनके ऑफिस पहुंचा और जाते ही मानो लूट लेने के इरादे से सब कुछ जल्दी जल्दी कह गया।
आलोक जी ने तुरंत क्या प्रतिक्रिया दी, ये भी इसलिए याद नहीं कि जिसका नाम सुन सुन कर बड़े हुए थे वो सामने बैठे थे और हम तो बस वहां से कुछ लेने गये थे। और सिर्फ लेने की जिद थी। मानों उन्होने भी भांप लिया और कहा कि क्राइम या किसी भी विषय पर कुछ करने का मन है तो बस लिखना शुरू कर दो। ये टीवी वाले लिखने से भागते हैं, बस भाषण दिया और हो गई पत्रकारिता। तुम मुझे रेगुलर लिख कर दोगे। भले ही तुम टीवी पत्रकार हो लेकिन मैग्जीन के लिए लिखो। हमे जो चाहिए था उससे ज़्यादा मिल गया था।
शायद आलोक तोमर का यही सबसे पहला और बड़ा परिचय है। वो कहां से ताल्लुक रखते थे कब पैदा हुए वगैरा-वगैरा के बजाए मेरी नज़र में हर उभरते और संघर्षशील पत्रकार को अगर कोई देने या सिखाने को आतुर रहता था तो वो था आलोक तोमर। जितना मांगो उससे ज्यादा पाओ। और अगर कहीं अकेले पड़ जाओ तो बस एक फोन काल दूर आलोक तोमर मानों इंतजा़र में ही बैठे रहते थे। हाल ही में हमको किसी अधिकारी ने सरकारी धमकी से अवगत कराया तो आलोक तोमर जी से शिकायत करने पर बोले- मोर्चा खोलते हैं, घबराओ मत।
ऊंच नीच उतार चढाव से ना घबराने वाले आलोक जी आज हमारे बीच न रहे हों लेकिन उनका प्यार उनकी शिक्षा और उनका व्यक्तित्व हमेशा देश और पत्रकारिता के लिए रोशन मशाल के तौर पर जगमगाता रहेगा। उनके साथ काम करके जो कुछ उनके बारे में जाना उससे तो यही लगता है कि उनके जाने से पत्रकारिता की नई पीढ़ी किसी संकट के समय में खुद को लावारिस ना समझने लगे क्योंकि बहुत मुक़ाम ऐसे आते हैं जब किसी बड़े भाई किसी सरपरस्त या अभिभावक का हाथ अपने सिर पर होने की ज़रूरत महसूस होती है। और अब वही हाथ हमारे सिर से उठ गया।
आज़ाद ख़ालिद
एडिटर
अपोजीशन न्यूज डॉट कॉम
कुछ नाम ऐसे होते हैं जो जितने सुने जाते हैं उतना ही उनसे मिलने का मन भी होता है और उनका प्रभाव भी दिल पर बढता रहता है। इसे उनका व्यक्तित्व कहें या उनका नसीब। कुछ ऐसा ही अनुभव हमे किसी के बारे में हुआ । आंखो देखी में नलिनी सिंह के सानिध्य में क्राइम और जनूनी पत्रकारिता की ए, बी, सी डी पढ़ने की कोशिश और बाद में सहारा में पूरी तरह क्राइम और खोजी पत्रकारिता के समुंदर में गोते लगाते हुए एक नाम बहुत सुनते थे- आलोक तोमर। ना जाने क्यों या तो लोगों ने हमे डराने की ठान ली थी या उनकी मार्किटिंग बेहद प्रभावी थी या फिर हमारे लिए आलोक तोमर नाम नहीं बल्कि एक ज़रूरत बनता गया।
सहारा के बाद इंडिया टीवी गये तो वहां भी कुछ कर गुज़रने के नाम पर मिसाल दी गई कि आलोक जी से कुछ सीखों। यानि एक बार फिर आलोक तोमर हमारे लिए मानों मील का पत्थर बन कर सामने आ चुके थे। कई साल गुज़रने के बाद लगभग पांच-छह साल बाद मुकेश कुमार जी के आशीर्वाद से एस वन ज्वाइन करने का मौक़ा मिला। चैनल से पहले सीनियर इंडिया की मैग्जीन आ चुकी थी और उसको आलोक तोमर जी ही संचालित कर रहे थे। ज्वाइन करते ही ऊपर उनके ऑफिस पहुंचा और जाते ही मानो लूट लेने के इरादे से सब कुछ जल्दी जल्दी कह गया।
आलोक जी ने तुरंत क्या प्रतिक्रिया दी, ये भी इसलिए याद नहीं कि जिसका नाम सुन सुन कर बड़े हुए थे वो सामने बैठे थे और हम तो बस वहां से कुछ लेने गये थे। और सिर्फ लेने की जिद थी। मानों उन्होने भी भांप लिया और कहा कि क्राइम या किसी भी विषय पर कुछ करने का मन है तो बस लिखना शुरू कर दो। ये टीवी वाले लिखने से भागते हैं, बस भाषण दिया और हो गई पत्रकारिता। तुम मुझे रेगुलर लिख कर दोगे। भले ही तुम टीवी पत्रकार हो लेकिन मैग्जीन के लिए लिखो। हमे जो चाहिए था उससे ज़्यादा मिल गया था।
शायद आलोक तोमर का यही सबसे पहला और बड़ा परिचय है। वो कहां से ताल्लुक रखते थे कब पैदा हुए वगैरा-वगैरा के बजाए मेरी नज़र में हर उभरते और संघर्षशील पत्रकार को अगर कोई देने या सिखाने को आतुर रहता था तो वो था आलोक तोमर। जितना मांगो उससे ज्यादा पाओ। और अगर कहीं अकेले पड़ जाओ तो बस एक फोन काल दूर आलोक तोमर मानों इंतजा़र में ही बैठे रहते थे। हाल ही में हमको किसी अधिकारी ने सरकारी धमकी से अवगत कराया तो आलोक तोमर जी से शिकायत करने पर बोले- मोर्चा खोलते हैं, घबराओ मत।
ऊंच नीच उतार चढाव से ना घबराने वाले आलोक जी आज हमारे बीच न रहे हों लेकिन उनका प्यार उनकी शिक्षा और उनका व्यक्तित्व हमेशा देश और पत्रकारिता के लिए रोशन मशाल के तौर पर जगमगाता रहेगा। उनके साथ काम करके जो कुछ उनके बारे में जाना उससे तो यही लगता है कि उनके जाने से पत्रकारिता की नई पीढ़ी किसी संकट के समय में खुद को लावारिस ना समझने लगे क्योंकि बहुत मुक़ाम ऐसे आते हैं जब किसी बड़े भाई किसी सरपरस्त या अभिभावक का हाथ अपने सिर पर होने की ज़रूरत महसूस होती है। और अब वही हाथ हमारे सिर से उठ गया।
आज़ाद ख़ालिद
एडिटर
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