: संदर्भ आलोक तोमर स्मृति सभा : जीवंत जीवन को सलाम :
कल मैं स्वर्गीय आलोक तोमर जी के स्मरण में आयोजित सभा में दिल्ली गया था. लोधी रोड स्थित चिन्मय मिशन में यह शोक सभा हुई थी. आलोक जी के कई पुराने इष्ट-मित्र-सहचर-प्रशंसक-सहयोगी वहाँ मौजूद थे और उनमे से कई लोगों ने अपने विचार भी व्यक्त किये. जिन कुछ लोगों को मैं जानता था उनमे सुप्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव, अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी आमोद कंठ, छत्तीसगढ़ के सांसद सुधीश पचौरी तथा तमाम अन्य ऐसे सम्मानित लोग थे जो आलोक जी के किसी ना किसी रूप में बहुत ही अभिन्न रहे थे. मैं इन सब से अलग दो लोगों का विशेष उल्लेख करते हुए जीवन को उसके वृहदाकार स्वरूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा.
एक राहुल देव जी, जो आलोक तोमर के बड़े भाई की तरह थे, उनके वरिष्ठ सहयोगी थे. उन्हें मैंने आलोक जी की मृत्यु वाले दिन भी लगातार वहीं मौजूद देखा था, ग़मगीन, विचारमग्न, शोकाप्लावित. और दूसरे आलोक जी की सलहज. मैं उनका नाम नहीं स्मरण कर पा रहा पर जहां तक याद करता हूँ, उनका नाम शायद गार्गी रॉय है और उनके पति यानि आलोक जी के साले और सुप्रिया जी के भाई का नाम संजय रॉय है. मैं तमाम लोगों की भीड़ में यही दो नाम इसी लिए सामने रख रहा हूँ क्योंकि इन दोनों के उद्गारों ने मुझे जीवन के प्रति दो पूर्णतया दृष्टिकोणों के विषय में सोचने को मजबूर कर दिया. आलोक जी की स्मृति में एक-एक कर के वक्ता बुलाये जा रहे थे. शुरू के ही वक्ताओं में राहुल देव को भी आग्रह किया गया. राहुल जी शोकमग्न और भावनाओं से आप्लावित थे. चेहरे से साफ़ जाहिर हो रहा था कि उनके मन में असीम वेदना का प्रवाह हो रहा है.
जब कार्यक्रम का संचालन कर रहे कुमार संजोय सिंह साहब ने राहुल जी को अपने और आलोक जी के बहुत लंबे संबंधों में से थोड़े से अनुभव लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने का निवेदन किया तो राहुल जी ने मना किया. उनकी आँखें भरी हुई थीं और चेहरे से ही पीड़ा के भाव साफ़ दिख रहे थे. संजोय जी ने कहा कि यद्यपि वे राहुल देव साहब का कष्ट पूरी तरह समझ रहे हैं पर फिर भी उनसे नम्र निवेदन है कि इस स्मृति सभा में अपनी कुछ बातें अवश्य कहें. राहुल देव अपने स्थान से उठे, मंच तक आये, माइक के सामने खड़े हुए और मात्र इतना ही कह पाए- “माफ कीजियेगा, मैं बोलने की स्थिति में नहीं हूँ.” इसके बाद वे अपने स्थान पर आ कर बैठ गए.
इसके बाद कई अन्य वक्ताओं का क्रम आया. फिर संजोय जी ने बताया कि आलोक तोमर साहब की सलहज गार्गी उनकी याद में कुछ कहना चाहती हैं. आलोक जी की सलहज आयीं. माइक के सामने खड़ी हुईं. उनके ह्रदय में शोक के भाव अवश्य रहे होंगे पर उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं विशेष नहीं दिख रही थीं. अगर कहा जाए तो चेहरे पर हलकी सी स्मित की आभा ही देखने में आ रही थी. आम तौर पर ऐसे अवसरों पर ग़मगीन चेहरों और रुंधे स्वरों को देखने का आदी हो चुकने के कारण मैं यह देख कर थोड़ा सा अचंभित और परेशान सा हुआ. इतनी नजदीक रिश्तेदार और उस तरह शोकाकुल नज़र नहीं आ रहीं जैसी हम लोगों की स्थापित मान्यताओं में है और जैसा हमारे दिलो-दिमाग में छाया है. इसके बाद उन्होंने शुद्ध अंग्रेजी में बहुत सलीके से अपनी बात कहनी शुरू की. शुरुआत कुछ इस तरह किया- ''आज मैं जिस व्यक्ति में बारे में बोलने खड़ी हुई हूँ वह मेरा कोई खास ही था. मेरे और उस आदमी के रिश्ते ही कुछ अलग किस्म के थे. मैं उस व्यक्ति के साले की पत्नी हूँ और अंत तक आलोक यही कहते रहे थे कि आज तुम जो इस घर का हिस्सा हो और आलोक के साले की पत्नी हो, वह मात्र मेरी वजह से.''
इसके बाद उस भद्र महिला ने वह दास्तान बताई कि कैसे आलोक जी से उनकी पहली मुलाक़ात कलकत्ते में हुई, कैसे आलोक जी ने उनसे बातें की, किस प्रकार आलोक जी के खुले स्वभाव और मस्तमौला अंदाज़ ने उन्हें एक बार में ही इस विरले व्यक्ति के प्रति विशिष्ट भावनायें पैदा कर दी थी. उन्होंने यह भी बताया कि जब वे शादी के बाद अपने नए घर में आयीं तो उस समय इस घर में उनका मात्र एक सहचर था, एक मित्र- आलोक तोमर. इसी दोस्ती की डोर पकड़े हुए वे इस घर के बाकी सदस्यों के साथ रिश्ता बनाती चली गयीं. उनका कहना था कि आलोक उनके मित्र भी थे, भाई भी, सहचर भी, कहना मुश्किल है कि उनका और आलोक जी का नाता किस तरह से बखान किया जा सकता है.
अपने इन घरेलू संबंधों के अलावा उन्होंने आलोक जी के बारे में जो एक बात कही, उसने भी मेरा दिल छू लिया- “आलोक वाज़ लाइफ पेर्सोनीफायड”, अर्थात आलोक स्वयं ही जीवन के प्रतीकचिह्न थे. साथ ही यह भी जोड़ा कि जितनी जिजीविषा, जितना जीवन के प्रति उत्कृष्ट स्नेह और जितनी जीवन्तता आलोक जी में थी, वह बहुत विरले मिल सकती है और शायद आलोक जी की तमाम खूबियों और खासियतों में यह सबसे बड़ी विशिष्टता थी.
गार्गी ने कुछ महीने पहले अपने माँ की अकस्मात हार्ट अटैक से हुई मृत्यु की घटना और उसके बाद आलोक जी के टेलीफोन का जिक्र किया जिसमे आलोक जी ने कहा था- “मैं चाहता हूँ कि इंसान की मौत ऐसी ही हो. अचानक, बगैर किसी पीड़ा के. अरे, परेशान हो कर मरना भी कोई मरना है.” अपने आखिरी दिन में आलोक जी के साथ हुई बातचीत का उन्होंने उल्लेख किया. उस समय जब उनकी साँसें थमी सी रही थीं, तब भी वे उसी प्रकार से मजाक कर रहे थे और जिंदगी से खेल रहे थे- “अरे तलाक ले उससे, मुझसे शादी कर लो, मुझसे. बहुत अच्छा रहेगा.”
अंत में आलोक जी की सलहज के कहा- “इस तरह जीवन को प्यार करने वाले और इस तरह स्वयं जीवन का प्रतिरूप बन कर जीने वाले आलोक जी को नमन.” इसके साथ ही उन्होंने अपने पोरों को हलके से छुआ, शायद एक-आध बूँद आंसू आ गए हों, उन्हें किनारे किया और एक भव्य मुस्कराहट के साथ मंच से नीचे उतर आयीं मानों जीवन-रूपी आलोक को याद करके जीवन-पर्व का आनंद-उत्सव मना रही हों.
राहुल देव जी और गार्गी जी दोनों ने हमें जीवन और मृत्यु से जुड़े मौलिक विषयों पर अपने-अपने ढंग से दो विपरीत रूप दिखाए. मनुष्य असहाय है, मनुष्य सर्वशक्तिमान है. जीवन मृत्यु का क्रीतदास है और मृत्यु जीवन का उन्माद. दोनों बहुत पास हैं और बहुत दूर भी. इनमे से कौन सच है और कौन झूठ, यह इतना सरल प्रश्न होता तो मेरे जैसा व्यक्ति भी ज्ञाता बन गया होता, सत्य की राह तलाशने को बेचैन एक आत्मा नहीं.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. इन दिनों मेरठ में पदस्थ हैं.
कल मैं स्वर्गीय आलोक तोमर जी के स्मरण में आयोजित सभा में दिल्ली गया था. लोधी रोड स्थित चिन्मय मिशन में यह शोक सभा हुई थी. आलोक जी के कई पुराने इष्ट-मित्र-सहचर-प्रशंसक-सहयोगी वहाँ मौजूद थे और उनमे से कई लोगों ने अपने विचार भी व्यक्त किये. जिन कुछ लोगों को मैं जानता था उनमे सुप्रसिद्ध लेखिका पद्मा सचदेव, अवकाशप्राप्त आईपीएस अधिकारी आमोद कंठ, छत्तीसगढ़ के सांसद सुधीश पचौरी तथा तमाम अन्य ऐसे सम्मानित लोग थे जो आलोक जी के किसी ना किसी रूप में बहुत ही अभिन्न रहे थे. मैं इन सब से अलग दो लोगों का विशेष उल्लेख करते हुए जीवन को उसके वृहदाकार स्वरूप में प्रस्तुत करने का प्रयास करूँगा.
एक राहुल देव जी, जो आलोक तोमर के बड़े भाई की तरह थे, उनके वरिष्ठ सहयोगी थे. उन्हें मैंने आलोक जी की मृत्यु वाले दिन भी लगातार वहीं मौजूद देखा था, ग़मगीन, विचारमग्न, शोकाप्लावित. और दूसरे आलोक जी की सलहज. मैं उनका नाम नहीं स्मरण कर पा रहा पर जहां तक याद करता हूँ, उनका नाम शायद गार्गी रॉय है और उनके पति यानि आलोक जी के साले और सुप्रिया जी के भाई का नाम संजय रॉय है. मैं तमाम लोगों की भीड़ में यही दो नाम इसी लिए सामने रख रहा हूँ क्योंकि इन दोनों के उद्गारों ने मुझे जीवन के प्रति दो पूर्णतया दृष्टिकोणों के विषय में सोचने को मजबूर कर दिया. आलोक जी की स्मृति में एक-एक कर के वक्ता बुलाये जा रहे थे. शुरू के ही वक्ताओं में राहुल देव को भी आग्रह किया गया. राहुल जी शोकमग्न और भावनाओं से आप्लावित थे. चेहरे से साफ़ जाहिर हो रहा था कि उनके मन में असीम वेदना का प्रवाह हो रहा है.
जब कार्यक्रम का संचालन कर रहे कुमार संजोय सिंह साहब ने राहुल जी को अपने और आलोक जी के बहुत लंबे संबंधों में से थोड़े से अनुभव लोगों के सम्मुख प्रस्तुत करने का निवेदन किया तो राहुल जी ने मना किया. उनकी आँखें भरी हुई थीं और चेहरे से ही पीड़ा के भाव साफ़ दिख रहे थे. संजोय जी ने कहा कि यद्यपि वे राहुल देव साहब का कष्ट पूरी तरह समझ रहे हैं पर फिर भी उनसे नम्र निवेदन है कि इस स्मृति सभा में अपनी कुछ बातें अवश्य कहें. राहुल देव अपने स्थान से उठे, मंच तक आये, माइक के सामने खड़े हुए और मात्र इतना ही कह पाए- “माफ कीजियेगा, मैं बोलने की स्थिति में नहीं हूँ.” इसके बाद वे अपने स्थान पर आ कर बैठ गए.
इसके बाद कई अन्य वक्ताओं का क्रम आया. फिर संजोय जी ने बताया कि आलोक तोमर साहब की सलहज गार्गी उनकी याद में कुछ कहना चाहती हैं. आलोक जी की सलहज आयीं. माइक के सामने खड़ी हुईं. उनके ह्रदय में शोक के भाव अवश्य रहे होंगे पर उनके चेहरे पर शोक की रेखाएं विशेष नहीं दिख रही थीं. अगर कहा जाए तो चेहरे पर हलकी सी स्मित की आभा ही देखने में आ रही थी. आम तौर पर ऐसे अवसरों पर ग़मगीन चेहरों और रुंधे स्वरों को देखने का आदी हो चुकने के कारण मैं यह देख कर थोड़ा सा अचंभित और परेशान सा हुआ. इतनी नजदीक रिश्तेदार और उस तरह शोकाकुल नज़र नहीं आ रहीं जैसी हम लोगों की स्थापित मान्यताओं में है और जैसा हमारे दिलो-दिमाग में छाया है. इसके बाद उन्होंने शुद्ध अंग्रेजी में बहुत सलीके से अपनी बात कहनी शुरू की. शुरुआत कुछ इस तरह किया- ''आज मैं जिस व्यक्ति में बारे में बोलने खड़ी हुई हूँ वह मेरा कोई खास ही था. मेरे और उस आदमी के रिश्ते ही कुछ अलग किस्म के थे. मैं उस व्यक्ति के साले की पत्नी हूँ और अंत तक आलोक यही कहते रहे थे कि आज तुम जो इस घर का हिस्सा हो और आलोक के साले की पत्नी हो, वह मात्र मेरी वजह से.''
इसके बाद उस भद्र महिला ने वह दास्तान बताई कि कैसे आलोक जी से उनकी पहली मुलाक़ात कलकत्ते में हुई, कैसे आलोक जी ने उनसे बातें की, किस प्रकार आलोक जी के खुले स्वभाव और मस्तमौला अंदाज़ ने उन्हें एक बार में ही इस विरले व्यक्ति के प्रति विशिष्ट भावनायें पैदा कर दी थी. उन्होंने यह भी बताया कि जब वे शादी के बाद अपने नए घर में आयीं तो उस समय इस घर में उनका मात्र एक सहचर था, एक मित्र- आलोक तोमर. इसी दोस्ती की डोर पकड़े हुए वे इस घर के बाकी सदस्यों के साथ रिश्ता बनाती चली गयीं. उनका कहना था कि आलोक उनके मित्र भी थे, भाई भी, सहचर भी, कहना मुश्किल है कि उनका और आलोक जी का नाता किस तरह से बखान किया जा सकता है.
अपने इन घरेलू संबंधों के अलावा उन्होंने आलोक जी के बारे में जो एक बात कही, उसने भी मेरा दिल छू लिया- “आलोक वाज़ लाइफ पेर्सोनीफायड”, अर्थात आलोक स्वयं ही जीवन के प्रतीकचिह्न थे. साथ ही यह भी जोड़ा कि जितनी जिजीविषा, जितना जीवन के प्रति उत्कृष्ट स्नेह और जितनी जीवन्तता आलोक जी में थी, वह बहुत विरले मिल सकती है और शायद आलोक जी की तमाम खूबियों और खासियतों में यह सबसे बड़ी विशिष्टता थी.
गार्गी ने कुछ महीने पहले अपने माँ की अकस्मात हार्ट अटैक से हुई मृत्यु की घटना और उसके बाद आलोक जी के टेलीफोन का जिक्र किया जिसमे आलोक जी ने कहा था- “मैं चाहता हूँ कि इंसान की मौत ऐसी ही हो. अचानक, बगैर किसी पीड़ा के. अरे, परेशान हो कर मरना भी कोई मरना है.” अपने आखिरी दिन में आलोक जी के साथ हुई बातचीत का उन्होंने उल्लेख किया. उस समय जब उनकी साँसें थमी सी रही थीं, तब भी वे उसी प्रकार से मजाक कर रहे थे और जिंदगी से खेल रहे थे- “अरे तलाक ले उससे, मुझसे शादी कर लो, मुझसे. बहुत अच्छा रहेगा.”
अंत में आलोक जी की सलहज के कहा- “इस तरह जीवन को प्यार करने वाले और इस तरह स्वयं जीवन का प्रतिरूप बन कर जीने वाले आलोक जी को नमन.” इसके साथ ही उन्होंने अपने पोरों को हलके से छुआ, शायद एक-आध बूँद आंसू आ गए हों, उन्हें किनारे किया और एक भव्य मुस्कराहट के साथ मंच से नीचे उतर आयीं मानों जीवन-रूपी आलोक को याद करके जीवन-पर्व का आनंद-उत्सव मना रही हों.
राहुल देव जी और गार्गी जी दोनों ने हमें जीवन और मृत्यु से जुड़े मौलिक विषयों पर अपने-अपने ढंग से दो विपरीत रूप दिखाए. मनुष्य असहाय है, मनुष्य सर्वशक्तिमान है. जीवन मृत्यु का क्रीतदास है और मृत्यु जीवन का उन्माद. दोनों बहुत पास हैं और बहुत दूर भी. इनमे से कौन सच है और कौन झूठ, यह इतना सरल प्रश्न होता तो मेरे जैसा व्यक्ति भी ज्ञाता बन गया होता, सत्य की राह तलाशने को बेचैन एक आत्मा नहीं.
लेखक अमिताभ ठाकुर आईपीएस अधिकारी हैं. इन दिनों मेरठ में पदस्थ हैं.