गतिरोध ने इन दिनों प्रदेश में अजीब तमाशे
वाली स्थिति पैदा कर दी है। वीरभद्र सिंह के मीडिया मैनेजरों ने मीडिया
के एक वर्ग को तमाशा बना कर रख दिया। अखबारों में नित नई-नई सुर्खियां छप
रही हैं और कुछ चैनलों में भी ब्रेकिंग न्यूज चल रही हैं, जिनके बारे में
कुछ ही घंटों में साफ भी हो जाता है कि खबरें शतप्रतिशत मनघड़ंत हैं।
लेकिन यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा। लोग पत्रकारों का रास्ता रोक
कर पूछने लगे हैं-भाई साहब! मीडिया में आखिर ये चल क्या रहा है? इस दौरान
कुछ अखबारों और कुछ चैनलों की क्रेडिविलिटी का भट्ठा बैठ चुका है और
अच्छे भले पत्रकारों की हैसियत चंडूखाने के खबरचियों वाली बन गई है।
शाम के समय वीरभद्र सिंह के मीडिया मैनेजरों की ओर से पत्रकारों को फोन
आते हैं, जिसमें वे कोई रहस्योद्घाटन सा करते हुए दावा करते हैं कि 'खबर
शतप्रतिशत ठीक हैं, आप तो बस भेजने की करें।' पत्रकार पुष्टि करने के लिए
जहां-जहां भी फोन करते हैं, वहां फोन योजनाबद्ध ढंग से स्विच्ड ऑफ मिलते
हंै। परिणास्वरूप अगले दिन जो भी अखबार उलटो, सभी में नई-नई सुर्खियां।
और थोड़ी ही देर में यह भी साफ हो जाता है कि सुर्खियां शतप्रतिशत झूठी
हैं।
पिछले दस दिनों में अनेक अखबारों और न्यूज़ चैनलों ने सिरमौर से कांग्रेस
के विधायक गंगूराम मुसाफिर को कई बार प्रदेश कांग्रेस का कार्यकारी
अध्यक्ष बनाया और बिगाड़ा। बताया गया कि वीरभद्र सिंह के कहने पर
कांग्रेस हाईकमान ने नियुक्ति पत्र जारी कर दिया है और वह पत्र गंगूराम
मुसाफिर की जेब में है। एक अखबार तो और भी आगे निकल गया, उसने खबर में
स्वयं गंगूराम मुसाफिर के मुंह से कहला डाला कि नियुक्ति पत्र उनकी जेब
में पड़ा है। इस संबंध में बार-बार खबरें छपीं और बार-बार ही झूठी भी
साबित हुईं।
इसी बीच एक अखबार ने यह खबर छाप कर सनसनी फैला दी कि कांग्रेस
प्रदेशाध्यक्ष कौल सिंह ठाकुर ने हाईकमान के सामने पार्टी के 80
डेलिगेटों सहित त्यागपत्र देने की पेशकश कर दी है। खबर पढ़ कर कौलसिंह
ठाकुर ने माथा पीट लिया और पत्रकार सम्मेलन बुलाकर लाचारी में पूछा कि-
'भई ये सब क्या हैं? आपके ये कौन सूत्र हैं जो इस तरह की खबरें छपवा रहे
हैं? कभी उनके नाम भी लिख लिया करो।'
वीरवार को स्थानीय स्तर के कुछ न्यूज़ चैनलों ने दूर की कौड़ी ढूंढ
निकाली। शाम के समय ब्रेकिंग न्यूज़ चली कि हाईकमान ने वीरभद्र सिंह को
कांग्रेस का प्रदेश अध्यक्ष बना दिया है और कौल सिंह ठाकुर ने
प्रदेशाध्यक्ष पद से अपना इस्तीफा हाईकमान को सौंप दिया है। एक चैनल ने
तो इस खबर पर तुरंत आधे घंटे की बहस भी चला दी, जिसमें प्रदेशाध्यक्ष के
रूप में वीरभद्र सिंह की भावी योजनाओं का खाका खींचा गया, उनके हाथों
विरोधियों के टिकट कटवा डाले और अंत में भाजपा को पराजित करते हुए उनके
मुख्यमंत्री बनने की संभावनाएं प्रबल बनाईं। हां, इस चैनल ने दर्शकों को
इतना जरूर अगाह कर दिया कि 'खबर अभी सिर्फ सूत्रों के हवाले से है।
आधिकरिक पुष्टि होनी अभी बाकी है।' देखने वालों ने उसी समय भांप लिया कि
खबर झूठी है और वही हुआ भी। दो दिन बीतने पर भी खबर की कोई आधिकारिक
पुष्टि नहीं हुई। लेकिन अखबार इस खबर की सुर्खियों से रंगे पड़े हैं। कौल
सिंह ठाकुर ने तो परेशान होकर फोन ही बंद कर दिया। शुक्रवार दोपहर को
किसी चैनल से उन्होंने कहा कि उनसे न किसी ने त्यागपत्र मांगा है और न ही
उन्होंने दिया है और न ही उन्हें किसी ने नया प्रदेशाध्यक्ष बना दिए जाने
की सूचना दी है। चैनल ने तुरंत खबर घुमा दी कि कौलसिंह त्यागपत्र नहीं
देने के लिए अड़ गए हैं। और यह भी जोड़ा कि अब वे भी वीरभद्र सिंह की तरह
दिल्ली में शक्ति प्रदर्शन कर सकते हैं। दर्शकों के लिए यह नया तमाशा
शुरू हो गया।
प्रदेश के जागरूक लोगों में अब बहस इस बात को लेकर छिड़ गई है कि
क्या वीरभद्र सिंह ने वास्तव में ही अपने मीडिया मैनेजरों को यह खेल
खेलने के लिए अधिकृत किया है या फिर वे बेलगाम हो गए हैं। मालरोड शिमला
का कॉफी हाउस शुक्रवार को दिन भर इसी तरह की चर्चाओं से गर्म रहा।
अखबारों-चैनलों पर भी सवाल खड़े किए जा रहे हैं कि यदि सूचनाएं झूठी मिल
रही हैं तो उनके आधार पर बार-बार खबरें क्यों बनाई जा रही हैं?
वीरभद्र सिंह संकट के दौर से गुजर रहे हैं। उनकी परेशानी समझ में आती है।
लेकिन उनके अब तक के राजनीतिक जीवन में ऐसा कभी नहीं हुआ कि उन्होंने
अपनी बात कहने के लिए अखबारों में झूठी खबरें छपवाने का सहारा लिया हो।
शायद इसी कारण मीडिया के साथ उनके संबंध हमेशा मधुर रहे हैं।
उधर, पत्रकारिता का भी एक उसूल होता है कि जो 'सूत्र' जानते बूझते हुए
गलत सूचना देकर झूठी खबरें प्रकाशित करवाता है, उसे तुरंत ब्लैक लिस्ट कर
दिया जाता है। पत्रकारों और सूत्रों के मध्य विश्वास का एक अटूट रिश्ता
होता है और यही बात मीडिया प्रबंधन पर भी लागू होती है ताकि पत्रकारिता
जगत की विश्वसनीयता बरकरार रह सके। लेकिन वीरभद्र सिंह के मीडिया मैनेजर
तो सारी मर्यादाओं को तोडऩे पर उतारू हो गए हैं। राजनीति के जानकारों का
कहना है कि इन मैनेजरों की यह करतूत अंतत: वीरभद्र सिंह को ही महंगी
पड़ेगी, क्योंकि इस घटनाक्रम का सारा कच्चा चिट्ठा नियमित रूप से हाईकमान
के पास पहुंच रहा है।