चिडऩू के बहाने अब मायके नहीं जाती शहरी महिलाएं
धर्मशाला 15 जुलाई (विजयेन्दर शर्मा) । हिमाचल प्रदेश में सावन संक्रांति को मनाये जाने वाले त्यौहार चिडऩू की परंपरा भी अब आधुनिक चकाचौंध में टूट रही है। इस बार आज सावन संक्राति 16 जुलाई को यह त्योहार मनाया जा रहा है। गांवों में हालांकि चिडऩू के बहाने मायके जाने की आस लगाने वाली महिलाएं अब भी चिडऩू के आने की खुशी मनाती हैं। लेकिन शहरों में बहुत से लोग अब चिडऩू की रस्म अदायगी भी नहीं करते। आधुनिक युग में हावी हो रही पाश्चात्य संस्कृति तीज त्यौहारों सामाजिक सरोकारों से भी जन मानस को विमुख कर रही है। जिससे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।
कभी प्रदेश का लोकप्रिय त्यौहार रहा है चिडऩू अब लुप्त होने के कगार पर है। आज नयी पीढी से पूछा जाए कि चिडऩू क्या है? तो बहुत से ऐसे मिलेंगे, जिन्होनें यह शब्द सुना तक नहीं है। प्रदेश के इस लोकप्रिय त्यौहार को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई। यह त्यौहार प्रदेश के निचले क्षेत्रों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कहते हैं कि यह त्यौहार वर्षों पहले शुरु हुआ।
इसे हर साल सावन संक्रांति के अवसर पर मनाया जाता है। दन्त कथाओं के मुताविक जब प्रदेश में यातायात का कोई साधन नहीं होता था, तब यह त्यौहार शुरु हुआ। नयी फसल के लहलहाते खेतों को देख इसे मनाया जाता है। पुराने समय में जब यातायात की व्यवस्था नहीं थी, तो जिन लड़कियों के नयी शादियां होती थी वो चिडऩू के त्यौहार पर अपने मायके जाती थीं। मायके वालों को भी अपनी बेटी के आने का बड़ी बेसव्री से इन्तजार होता था। लेकिन अब यह परंपरा काफी हद तक टूट रही है। फिर भी गावों की महिलाएं इसी बहाने मायके पहुंचती हैं। इस त्यौहार को आज भी अधेड़ उम्र ग्रामीण महिलाएं बड़ी बेसव्री से इन्तजार करती हैं। मायके जाकर यह महिलाएं नये पकवान जैसे हलवा पूरी का आन्नद लेती हैं। घर में खुशी मनाई जाती है।
इसका महत्व यह भी है कि इस दिन पशुओं को काटने वाले जीबों, जिन्हें पहाड़ी भाषा में पिथड़ भी कहते हैं, का नाश किया जाता है। पशुओं को पड़े इन जीवों को रात के समय जलाया जाता है। गांव में लोग इकठ्े होकर आग जलाते हैं। पशु पालक इन जीवों को पशुओं के शरीर से अलग करके गोबर में डाल देते हैं व रात के अंधेरे में गोबर सहित हंसी खुशी नाच गाकर इन्हें जलाते हैं। जलती आग के सामने घंटों लोक गीत राग मल्हार गाये जाते हैं। इस परंपरा को कई लोक गायकों ने भी अपने गायन में ढाला है। आग के उपर बच्चे एक दूसरे की तरफ बारी-बारी छलांग लगाते हैं यह सब देर रात तक चलता रहता है।
चिडऩू के इस लोक त्यौहार लोग अपने-अपने रिश्तदारों को सप्ताह पहले निमंत्रण देने जाते हैं। रिश्तेदार खुशी-खुशी शाम के समय पकवानों का आनंद लेते हैं व इस त्यौहार के बहाने अपना दुख-दर्द भी बांटते हैं। खासकर बेटी वालों के घर इसका अलग ही नजारा होता है। जहां सब मिल बैठकर इस परंपरा को जीवंत रुप देते हैं। त्यौहार के दिन यहां पर पकाए जाने वाले पटवाड़े चावल के आटे से गोलाकार में पकाए जाते हैं। इस पकवान को लोग दूध में देशी घी मिलाकर व उड़द की दाल में डाल कर खाते हैं। कुछ स्थानों पर हलवा व पूरी बनाया जाता है। प्रदेश के शहरी इलाकों में चिडऩू त्यौहार को जानने वाले कम ही लोग होंगे। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इस त्यौहार को पंसद करने वाले बहुत लोग आपको मिल जायेंगे ।
धर्मशाला 15 जुलाई (विजयेन्दर शर्मा) । हिमाचल प्रदेश में सावन संक्रांति को मनाये जाने वाले त्यौहार चिडऩू की परंपरा भी अब आधुनिक चकाचौंध में टूट रही है। इस बार आज सावन संक्राति 16 जुलाई को यह त्योहार मनाया जा रहा है। गांवों में हालांकि चिडऩू के बहाने मायके जाने की आस लगाने वाली महिलाएं अब भी चिडऩू के आने की खुशी मनाती हैं। लेकिन शहरों में बहुत से लोग अब चिडऩू की रस्म अदायगी भी नहीं करते। आधुनिक युग में हावी हो रही पाश्चात्य संस्कृति तीज त्यौहारों सामाजिक सरोकारों से भी जन मानस को विमुख कर रही है। जिससे हमारी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत पर खतरे के बादल मंडराने लगे हैं।
कभी प्रदेश का लोकप्रिय त्यौहार रहा है चिडऩू अब लुप्त होने के कगार पर है। आज नयी पीढी से पूछा जाए कि चिडऩू क्या है? तो बहुत से ऐसे मिलेंगे, जिन्होनें यह शब्द सुना तक नहीं है। प्रदेश के इस लोकप्रिय त्यौहार को बढ़ावा देने के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई। यह त्यौहार प्रदेश के निचले क्षेत्रों में बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। कहते हैं कि यह त्यौहार वर्षों पहले शुरु हुआ।
इसे हर साल सावन संक्रांति के अवसर पर मनाया जाता है। दन्त कथाओं के मुताविक जब प्रदेश में यातायात का कोई साधन नहीं होता था, तब यह त्यौहार शुरु हुआ। नयी फसल के लहलहाते खेतों को देख इसे मनाया जाता है। पुराने समय में जब यातायात की व्यवस्था नहीं थी, तो जिन लड़कियों के नयी शादियां होती थी वो चिडऩू के त्यौहार पर अपने मायके जाती थीं। मायके वालों को भी अपनी बेटी के आने का बड़ी बेसव्री से इन्तजार होता था। लेकिन अब यह परंपरा काफी हद तक टूट रही है। फिर भी गावों की महिलाएं इसी बहाने मायके पहुंचती हैं। इस त्यौहार को आज भी अधेड़ उम्र ग्रामीण महिलाएं बड़ी बेसव्री से इन्तजार करती हैं। मायके जाकर यह महिलाएं नये पकवान जैसे हलवा पूरी का आन्नद लेती हैं। घर में खुशी मनाई जाती है।
इसका महत्व यह भी है कि इस दिन पशुओं को काटने वाले जीबों, जिन्हें पहाड़ी भाषा में पिथड़ भी कहते हैं, का नाश किया जाता है। पशुओं को पड़े इन जीवों को रात के समय जलाया जाता है। गांव में लोग इकठ्े होकर आग जलाते हैं। पशु पालक इन जीवों को पशुओं के शरीर से अलग करके गोबर में डाल देते हैं व रात के अंधेरे में गोबर सहित हंसी खुशी नाच गाकर इन्हें जलाते हैं। जलती आग के सामने घंटों लोक गीत राग मल्हार गाये जाते हैं। इस परंपरा को कई लोक गायकों ने भी अपने गायन में ढाला है। आग के उपर बच्चे एक दूसरे की तरफ बारी-बारी छलांग लगाते हैं यह सब देर रात तक चलता रहता है।
चिडऩू के इस लोक त्यौहार लोग अपने-अपने रिश्तदारों को सप्ताह पहले निमंत्रण देने जाते हैं। रिश्तेदार खुशी-खुशी शाम के समय पकवानों का आनंद लेते हैं व इस त्यौहार के बहाने अपना दुख-दर्द भी बांटते हैं। खासकर बेटी वालों के घर इसका अलग ही नजारा होता है। जहां सब मिल बैठकर इस परंपरा को जीवंत रुप देते हैं। त्यौहार के दिन यहां पर पकाए जाने वाले पटवाड़े चावल के आटे से गोलाकार में पकाए जाते हैं। इस पकवान को लोग दूध में देशी घी मिलाकर व उड़द की दाल में डाल कर खाते हैं। कुछ स्थानों पर हलवा व पूरी बनाया जाता है। प्रदेश के शहरी इलाकों में चिडऩू त्यौहार को जानने वाले कम ही लोग होंगे। जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में इस त्यौहार को पंसद करने वाले बहुत लोग आपको मिल जायेंगे ।
Bijender Sharma*, Press Correspondent Bohan Dehra Road JAWALAMUKHI-176031, Kangra HP(INDIA)*
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