सरकारी उदासीनता के चलते बदहाल हैं हिमाचल के मंदिर

सरकारी उदासीनता के चलते बदहाल हैं हिमाचल के मंदिर

 ज्वालामुखी   12 फरवरी :(विजयेन्द्र शर्मा)    हिमाचल प्रदेश में सुखविंदर सिंह सुक्खू के नेतृत्व में बनी सरकार से प्रदेश के लोगों में मौजूद मंदिर व्यवस्था में सुधार आने की उम्मीद जगी हैं। लोगों को लगता है कि इस मामले में खुद सीएम सुक्खू दखल देते हुए मंदिरों की व्यवस्था में सुधार लाने के प्रयास करेंगे।  हिमाचल प्रदेश के प्रसिद्ध हिन्दू मंदिर व शक्तिपीठ दुनिया भर में रह रहे हिन्दुओं की आस्था का केन्द्र रहे हैं। प्रदेश के पचास से अधिक मंदिर सरकारी नियंत्रण में हैं। जिनकी देखरेख राज्य सरकार करती है। इन मंदिरों को हिन्दू सार्वजनिक संस्थान एंव पूर्व विन्यास अधिनियम के तहत अस्सी के दशक में सरकार ने अपने नियंत्रण में लिया था। लेकिन 37 साल से अधिक समय गुजर जाने के बाद भी व्यवस्था में सुधार लाने के लिये सरकार नाकाम रही है। हालांकि, मंदिर व्यवस्था में सुधार लाने के लिये राज्य सरकारों ने समय समय पर दावे किये हैं।
वहीं, समय समय पर प्रदेश हाईकोर्ट के दखल के बाद आमूल चूल परिवर्तन लाने की कोशिश शुरू हुई। लेकिन सरकारों ने इसमें कोई उत्साह नहीं दिखाया। जिससे मामला सरकारी फाइलों में दफन होकर रह गया। जिसके चलते मंदिरों में आज भ्रष्टाचार व चढावे में हेराफेरी की शिकायतें आने लगी है। व आने वाले तीर्थयात्रियों के लिये समुचित सुविधा का अभाव भी देखने को मिला। मंदिरों में जमकर राजनैतिक हस्तक्षेप होता रहा है।
अब तक हिमाचल सरकार मंदिर मामलों को देखने के लिए चार समितियों का गठन कर चुकी है। पूर्व मुख्य सचिव बीसी नेगी और सेवानिवृत्त नौकरशाह केसी शर्मा की अध्यक्षता वाली दो समितियों ने 2008 में कुछ सिफारिशें की थीं, जिनमें से अधिकांश फाइलों तक ही सीमित हैं। 2007 में था कि हिमाचल हाईकोर्ट ने हिमाचल प्रदेश हिंदू सार्वजनिक धार्मिक संस्थानों और धर्मार्थ बंदोबस्ती अधिनियम, 1984 के तहत इन मंदिरों में दिए गए धन के उचित उपयोग के मुद्दे को देखने के लिए बीसी नेगी की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया था। वहीं, के सी शर्मा की अध्यक्षता वाली समिति ने कर्मचारियों से संबंधित मुद्दों को देखा।
अपने निर्णय में हिमाचल हाईकोर्ट  ने अपने आदेशों में स्पष्ट कहा है कि, "मंदिरों में एकत्र किया गया धन जनता का है और इसलिए यह महत्वपूर्ण सार्वजनिक हित में है कि इस धन को सही ढंग से, समझदारी से, निष्पक्ष रूप से और उचित तरीके से खर्च किया जाए।"
यह सुझाव दिया गया था कि इसकी एक सीमा होनी चाहिए। बारीदारों के लिए केवल 10 प्रतिशत प्रसाद और वह भी 10 साल की निर्दिष्ट अवधि के लिए और अनिश्चित काल के लिए नहीं। समिति ने उपायुक्तों, जो कि मंदिर आयुक्त हैं, और उप-मंडल मजिस्ट्रेटों द्वारा उपयोग किए जा रहे मंदिर निधि से वाहनों की खरीद के बारे में भी बहुत कड़ी टिप्पणियां कीं हैं। यह बताया गया कि पेट्रोल शुल्क के लिए भी पैसा मंदिर के फंड से दिया जा रहा था। समिति ने अपनी रिपो्रट में कहा कि मंदिर ट्रस्ट के कार्यालय में कर्मचारियों की संख्या भी बहुत अधिक थी, जिसके परिणामस्वरूप एक अनावश्यक बोझ से बडा हिस्सा वेतन में ही खर्च हो रहा है। यह सुझाव दिया गया था कि कर्मचारियों को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति की पेशकश की जाए और प्रशासनिक व्यय उसकी आय के 15 प्रतिशत से अधिक न की जाये।
कमेटी का सुझाव था कि न्यासियों के बहुमत के बजाय पुजारियों के परिवार से होने के बजाय, ट्रस्ट में पंचायतों के प्रतिनिधि, जिले के प्रतिष्ठित व्यक्ति और तीर्थयात्रियों के प्रतिनिधि भी होने चाहिए। समिति ने यह भी कहा कि मंदिर की आमदनी से स्कूल या कॉलेज खोला जाये। एक और सिफारिश यह थी कि आने वाले वीआईपी को सोने और चांदी के सिक्के मुफ्त नहीं दिए जा सकते। समिति ने अपनी सिफारिशें अदालत और सरकार को सौंप दी थी, लेकिन उसके द्वारा दिए गए सुझावों पर बहुत कम ध्यान दिया गया है।
BIJENDER SHARMA

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