राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस।

विज्येंदर शर्मा
वर्तमान में पत्रकारिता की डिग्री शुरु हो चुकी है। मास्टर डिग्री वाले पत्रकार आम तौर पर दिखाई देने लगे हैं, लेकिन अधिकतर डिग्रीधारी पत्रकारों की खबर की प्रस्तुति, भाषा शैली या विषय वस्तु देख, डिग्री देखने का मन करता है कि इनके पास डिग्री है या नहीं। मतलब, डिग्री लेने के बाद भी भाषा पर पकड़ कमजोर हुई है, जो पत्रकारिता की गिरावट की कारण कही जा सकती है, क्योंकि विद्धानों की दुनिया में रंग-रूप, लंबाई-चौड़ाई, जाति-धर्म, वंश-खानदान, धन या कपड़े नहीं, बल्कि विद्धता का सम्मान होता है। इसलिए व्यक्ति चाहे जिस धर्म से जुड़ा है, उसे धर्म की प्राथमिक जानकारी होनी ही चाहिए, क्योंकि हर धर्म पाप कर्म से दूर रहने की प्रेरणा देता है। जीवन शैली में धार्मिक क्रियाकलापों की कमी राक्षसी प्रवृत्ति को जन्म देती है।
उदाहरण के लिए कहीं दूर जाने की जरुरत नहीं है, क्योंकि अधिकतर पत्रकार साथी शराब, शबाब या मांसाहार के शैकीन दिखाई दे जायेंगे। शराब, शबाब या मांसाहार को बुरा कहने की मेरी जुर्रत नहीं है, पर कहने का आशय है कि इन सब कर्मों के लिए धन की जरुरत पड़ती है, धन न होने पर मन, आत्मा पर हावी हो जाता है और पाप कर्म करा ही देता है। इसलिए कर्तव्य से हट कर चाहे, जो कार्य किया जाये, वह सौ प्रतिशत पाप कर्म ही कहलाता है। पत्रकारों में ऐसी प्रवृत्ति बढ़ी है, इसीलिए गुणवत्ता में आश्चर्यजनक गिरावट दिखाई देने की बात की जा रही है। ऐसे भटके साथियों को ही सही बात बताने का दिन है राष्ट्रीय पत्रकारिता दिवस।
एक घटना याद आ रही है। बात पुरानी है। अक्सर मैं नहीं जाता हूं, पर एक मित्र दिखाने के इरादे से एक पार्टी में साथ ले गये। जाकर देखा, तो अधिकतर साथी मस्त थे। एक मित्र ने मुझे भी सहभागी बनने के लिए आमंत्रित किया, तो मैंने यह कह कर हाथ जोड़ लिये भाई, मैं नहीं लेता हूं। मित्र मान गया, लेकिन उसने जो शब्द कहे, उन शब्दों का अर्थ मैं आज तक नहीं निकाल पाया हूं और कई बार कई वरिष्ठों से चर्चा भी कर चुका हूं, पर सब हंस कर टाल जाते हैं। उस मित्र ने कहा था कि कैसे पत्रकार हो कि खाते-पीते नहीं। मतलब, अगर पत्रकार हो तो खाना-पीना भी जरुरी है और नहीं खाते-पीते, तो अधूरे पत्रकार हो। इसी धारणा के विरोध में खड़े होने का दिन है आज।

4 टिप्पणियाँ

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  1. एक वक़्त जब हम पर चढ़ा था बुखार, बनूंगा पत्रकार

    जन आशीष की चाह थी, चाह थी तो राह थी

    एक दिन हश्र देखा, जब कलम की ताक़त का

    हुआ अहसास वक़्त की नजाकत का

    देश के बड़े पत्रकार और यूपी की माया

    कलम को पुलिस के आगे लाचार पाया


    पुलिस को शांति भंग की थी आशंका

    डर था कहीं हनुमान जला न दे लंका

    बस पत्रकार की मां को बिठा दिया थाने में

    (करतूत उनकी थी) जो बिकते है रुपये आठ आने में

    पत्रकार बेटे ने दिया घर की इज्ज़त का हवाल

    पुलिस ने भी किये उससे सवाल दर सवाल

    बेटे ने जब पुलिस को कानून का पाठ पढ़ाया

    लेकिन कानून भी सत्ता के आगे मजबूर नज़र आया

    18 घंटे बाद बमुश्किल, बेटा मां को आज़ाद करा पाया

    धन्य है प्रशासन, धन्य है माया की माया

    मां की आँखों का हर आंसू एक कहानी था

    जेल में बीता हर पल एक लम्बी जिंदगानी था

    देश की सशक्त महिलाएं भी बेजुबान हो गईं

    या फिर माया बदगुमान हो गई

    मैं देखकर ये सब परेशां हो गया

    बक-बक करने वाला युवा बेजुबान हो गया

    इस पूरी घटना में प्रशासन की तानाशाही थी

    मां की आँखों में हर पल, बस सत्ता की तबाही थी

    जवाब देंहटाएं
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