आलोक जी

-नूरा जैसा माफिया आपका दोस्त रहा है। आप दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, छोटा राजन जैसे लोगों से मिल चुके हैं। यह सब कैसे हुआ?

--जनसत्ता, मुंबई में था तो वहां सरकुलेशन वार शुरू हुआ। भइयों का एक गैंग कृपाशंकर सिंह के नेतृत्व में था। नभाटा वालों के कहने पर गैंग जनसत्ता मार्केट में जाने से पहले हाकरों से खरीदकर समुद्र में फेंक देता था।

इधर, हम लोगों के अखबार का सरकुलेशन लगातार बढ़ रहा था लेकिन अखबार समुद्र में मछलियां पढ़ रहीं थीं। इसी कोई वैधानिक हल नहीं दिखा तो मैंने नूरा इब्राहिम से संपर्क निकाला। उससे मैंने नभाटा की कापियां समुद्र में फिंकवाना शुरू करा दिया। बात में नभाटा वालों से संधि हुई और यह अखबार फिंकवाने का धंधा दोनों तरफ से बंद करने पर सहमति बनी। इसके बाद नूरा से दोस्ती हो गई। कालीकट-शारजाह की जब पहली फ्लाइट शुरू हुई तो उसमें यात्रा करने के लिए मुझे भी न्योता मिला। शारजाह में सब कुछ नानवेज मिलता था और मैं ठहरा वेजीटीरियन। वहां शराब पर पाबंदी थी और मैं उन दिनों था मदिरा प्रेमी। वहां मैंने अपने लिए अंडा करी मंगाया तो उसमें भी हड्डी थी। मैंने नूरा को फोन किया। बगल में दुबई था। वहां से एक बड़ी गाड़ी आई। उस जमाने में भारत में मारुति से बड़ी गाड़ी नहीं थी। वो जो गाड़ी आई उसे छोटा राजन ड्राइव कर रहा था और उसमें छोटा शकील बैठा था। मैं उनके साथ गया। दुबई में दाऊद इब्राहिम से मुलाकात हुई। यहां यह साफ कर दूं कि ये बातें मुंबई ब्लास्ट के पहले की हैं। दाऊद ने मुझे एंस्वरिंग मशीन भेंट की। मैं मोबाइल फोन और इंस्ट्रूमेंट का शौकीन था। मैंने दाऊद से मुलाकात और उससे बातचीत के आधार पर जो रिपोर्ट दी वह जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस दोनों में फ्रंट पेज पर छपी। मैं बहुत सारे माफियाओं से मिल चुका हूं। चंबल के डाकू, मुंबई के भाई, दिल्ली के दीवान देवराज...। ये सब बेहद विनम्रता से ''भाई साहब-भाई साहब'' कहकर बात करते हैं।

-आपके जीवन में कभी ऐसा भी क्षण आया जब आपको अंदर से डर लगा हो?

--अपने पर मुझे अति-आत्मविश्वास है। मेरे शुभचिंतक हमेशा मेरे काम आए। एक बार मेरा एक्सीडेंट हुआ और पूरी रात बेहोश पड़ा रहा। मेरे मित्र ही मेरे काम आए। एक बार थोड़ा डर तब लगा था जब वीपी सिंह पीएम थे और मेरे घर आ धमके थे। उनके खिलाफ मैंने बहुत लिखा था। प्रभाष जी ने जो संपादकीय लोकतंत्र दे रखा था उसके चलते हम लोग ऐसा कर पाते थे। एक पीएम जिसके खिलाफ आप लिखते रहते हों, अपने लाव लश्कर के साथ घर आ धमके तो पहली नजर में मामला कुछ गड़बड़ नजर आता है। मेरी चिंता यह थी कि घरवालों को कोई दिक्कत न हो जाए। यह भय एक पीएम के आने का था। मेरा भय गलत था। वे सिर्फ मिलने आए थे।

-अपने करियर की सबसे बेहतरीन रिपोर्टिंग आप किसे मानते हैं?

--कालाहांडी पर अकाल को लेकर जो लिखा उसे मैं मानता हूं। उसी के बाद से कालाहांडी के सच को देश जान पाया। यह इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इसका इंपैक्ट हुआ और इसके बाद कालाहांडी के लोगों की जिंदगी में बदलाव आने के लिए सरकारी और गैर सरकारी प्रयास शुरू हुए। हरा भरा अकाल शीर्षक से कालाहांडी पर मेरी किताब है। कालाहांडी के बारे में मुझे जानकारी विदेश से मिली थी। मेरी एक दोस्त हैं जो हालीवुड में हैं। उनका लास एंजिल्स से फोन आया और उन्होंने मुझसे अंग्रेजी में पूछा था कि क्या भारत के उड़ीसा में 'क्लेहांडी' नामक कोई जगह है जहां लोग भूख से मरते हैं। वो देवी जी चंद्रास्वामी के चक्कर में मुझसे मिली थीं। उनका नाम है जूलिया राइट। वे हालीवुड की ठीकठाक अभिनेत्री हैं। उनके इस सवाल का जवाब तलाशना शुरू किया तो कालाहांडी का सच सामने आया।

-आप एक ऐसे पत्रकार हैं जो लेखन में बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। विज्ञान से लेकर नृत्य-संगीत, फिल्म तक पर आपने काम किया है। जरा इस बारे में बताएं?

--मेरी जितनी भी महिला मित्र हैं वे सब या रही हैं, ज्यादातर- नृत्य, संगीत और साहित्य के क्षेत्र की रहीं हैं। एक मित्र हैं जयन्ती। उस समय धर्मयुग में थीं। कोयल की तरह मीठी आवाज़ और बहुत प्रतिभाशाली। अब दिल्ली में हैं, वनिता की संपादक रह चुकीं हैं। मैं खजुराहो नृत्य समारोह का आफिसियल क्रिटिक रहा हूं। विज्ञान कथा की तरह फाइनेंसियल एक्सप्रेस में रेगुलर क्रिटिक रहा हूं। कविताओं का प्रेमी हूं। अग्निपथ, खिलाड़ी, जी मंत्री जी, केबीसी जैसे सीरियल लिखे। ये सब रुटीन में चलता रहता है। जहां से जो मांग आती है उसके लिए काम करता हूं।

-आगे की क्या योजना है?

--टीवी की जो भाषा है वो आजकल पत्रकारिता की भाषा हो गई है। उसको सुधारने का मौका मिलेगा तो काम करूंगा। मौका न मिला तो भी काम करूंगा। जैसा हम बोलते हैं वैसा ही लिखना चाहिए। टीवी की भाषा बहुत फूहड़ हो गई है। हालांकि भाषा को लेकर लोग अब सजग होते भी दिख रहे हैं। पुण्य प्रसून भाषा और सरोकार से समझौता नहीं करते। वे इस वक्त आदर्श टीवी पत्रकार का प्रतिनिधित्व करते हैं। प्रिंट में प्रभाष जी के बाद बहुत लोग हैं जो अच्छा लिखते हैं। आशुतोष बहुत अच्छा लिखते हैं पर वे टीवी में चले गए। मधुसूदन आनंद सटीक और सीधा लिखते हैं। मृणाल जी बहुत अपाच्य लिखती हैं। अभिषेक श्रीवास्तव और कुमार आनंद अच्छा लिख रहे हैं। राजकिशोर के पास भाषा और कंटेंट दोनों हैं। कई अच्छी प्रतिभाएं टीवी में चली गईं। रह गए वे लोग जो इस चक्कर में अच्छा नहीं लिख पाए की उन्हें टीवी में जाना है। वे एसपी सिंह की भाषा याद नहीं करते।

मेरी निजी रुचि राजनीतिक खबरों में कतई नहीं है। मैं लोक हित के मुद्दों पर काम करना चाहता हूं। राइट टू एजुकेशन भारत के संविधान में नहीं है। डाक्टर ने दवा लिख दिया लेकिन दवा खरीदने के लिए पैसा नहीं है। ये सब विषय हैं जिस पर काम करने का मन है। पर टीवी से ये विषय खेदड़ दिए गए हैं। इंडिया टीवी में जब मैं था तो रजत शर्मा से मैंने एक स्टोरी पर काम करने के लिए जिक्र किया। मामला झाबुआ में एक परिवार के सभी सदस्यों का गरीबी के चलते आत्महत्या कर लेने का था। तो रजत शर्मा ने कहा- ''झाबुआ इज नाट ए टीआरपी टाउन।''

मैं यहां बता दूं कि टीवी में मेरा प्रवेश रजत शर्मा के चलते ही हुआ था। मुझे लगता है कि ये जो टीआरपी का तंत्र है उसे बदलना चाहिए। एक पैरलल टीआरपी तंत्र विकसित करने की इच्छा है। इसकी टेक्नालाजी कया हो, मेथोडोलाजी क्या हो, ये सारे विषय अभी तय किए जाने हैं पर पैरलल टीआरपी सिस्टम को लेकर काम करना है, यह तय है। जिस तरह सेंसर बोर्ड वाहियात फिल्मों पर नजर रखने के लिए हैं उसी तरह अगर मित्रों की मंडली सार्थक खबरें बना सके, पठनीय बना सके तो ज्यादा उचित काम हो सकता है। यह करने की सोच है। एक खंडकाव्य लिखना चाहता हूं। दुष्यंत कुमार को लोग उनकी गजलों के लिए जानते हैं लेकिन बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्होंने एक कंठ विषपाई नामक एक खंड काव्य भी लिखा है। इस खंड काव्य की चार लाइनें शंकर जी पर हैं, वे इस तरह हैं- विष पीकर क्या पाया मैंने, आत्म निर्वासन और प्रेयसी वियोग। हर परंपरा के मरने का विष मुझे मिला, हर सूत्रपात का श्रेय ले गए और लोग।। मुझे तो ये लाइनें उनकी सारी गजलों पर भारी पड़ती दिखती हैं।

-आप जीवन में किनकी तरह बनना चाहते थे?

--मैं उदयन शर्मा की तरह बनना चाहता था पर आज तक नहीं बन पाया।

-राजनीति में आपको कौन से लोग अच्छे लगते हैं और क्यों?

--अटल जी को मानवीय गुणों की वजह से सर्वश्रेष्ठ राजनेता मानता हूं। अर्जुन सिंह जी से परिचय उनके खिलाफ ख़बर लिखने से हुआ था, मगर पिता की तरह आज भी स्नेह देते हैं। कमलनाथ को अच्छा नेता इसलिए मानता हूं कि वे दुनियादार और मेहनती हैं, मेरे दोस्त हैं। रमन सिंह को इसलिए मानता हूं क्योंकि उनके अंदर मानवीय सरोकार गजब के हैं। उन्हें आज तक ये भरोसा नहीं है कि वे सीएम बन गए हैं।

-आपको आगे किसी मीडिया हाउस की तरफ से नौकरी करने के लिए प्रस्ताव आता है तो ज्वाइन करेंगे?

--नौकरी नहीं करूंगा, काम करूंगा। ये काम भाषा के स्तर पर है, ये काम सरोकार के स्तर पर है। प्रभाष जी के बाद किसी ने भाषा को अपनी संवेदनशीलता से छुवा नहीं।

-दिल्ली से लांच हो रहे नई दुनिया के बारे में आपकी क्या धारणा है? इसका भविष्य कैसा दिख रहा है?

--नई दुनिया नखदंत विहीन शेर है। एक जमाने में यह पत्रकारिता का मानक था। अपोलो सर्कस अगर किसी शंकराचार्य से विज्ञापन करवा ले तो वह तीर्थ नहीं बन जाएगा। संवाद, विवाद, अपवाद, सरोकार...इन सबसे कोई बचेगा तो वो किस बात का अखबार होगा। आलोक मेहता हैं इसलिए थोड़ी-बहुत उम्मीद है।

-अब कोई दूसरा आलोक तोमर नहीं दिखता, ऐसा क्यों?

--आलोक तोमर इसलिए मिले क्योंकि प्रभाष जोशी थे। अच्छा गहना बनाने के लिए शिल्पी चाहिए। दिल्ली प्रेस में भर्ती हो जाता तो वहीं रह जाता। अगर प्रभाष जी नहीं मिले होते तो ये आलोक तोमर नहीं होता। नाम मेरा जनसत्ता से हुआ। टीवी में संप्रेषण और अभिव्यक्ति की सीमा है। आपके और आपके दर्शक के बीच में तकनीक है। फुटेज, इनजस्ट, साउंड क्वालिटी, विजुअल क्वालिटी ये सब ज्यादा प्रभावी हो जा रहे हैं। पुण्य प्रसून में जिस तरह का रचनात्मक अहंकार और दर्प है, वो अब बाकी लोगों में गायब होता दिख रहा है। लोग जहां जाते हैं, वहां वैसा लिखने लगते हैं। टीवी सुरसा है जो सबको निगल रही है। आज के जमाने में अगर गणेश शंकर विद्यार्थी, पराड़कर होते और उनका नवभारत व हिंदुस्तान के लिए टेस्ट करा दिया जाता तो वे फेल कर दिए जाते। आज की जो हिंदी पत्रकारिता है, उसे सुधारना है तो दूसरा प्रभाष जोशी चाहिए। महात्मा गांधी से बड़ा पत्रकार कौन है। उनके एक संपादकीय पर आंदोलन रुक जाया करते थे। मैं हरिवंश का प्रभात खबर सब्सक्राइव कर मंगाता हूं। वर्तमान में यह एक ऐसा अखबार है जिसमें सरोकार बाकी है। आजकल पत्रकारों से ज्यादा समाज के बारे में निरक्षर कोई दूसरा नहीं है। अगर भारत में भूख के बारे में लिखना है और नेट पर सर्च करेंगे तो विदेश के पेज खुलेंगे। कालाहांडी में भूख से मौत के बारे में मेरे पास सूचना विदेश से आती है।

-आप अपनी कुछ कमियों के बारे में बताएं?

--सबसे बड़ी कम यह है कि मैं बहुत आलसी आदमी हूं। हिंदी टाइपिंग बहुत कोशिश के बाद भी आज तक नहीं सीख पाया, ये भी मेरी बहुत बड़ी कमी है। अपने मां-पिता को बहुत समय नहीं दे पाता, यह मेरी कमी है। मां नहीं होती तों मैं पत्रकार नहीं बन पाया होता। मैं अंग्रेजी नहीं पढ़ और बोल पाता। मैं कभी पीआर नहीं कर पाया, ये मेरी कमी है। अचानक दो साल बाद किसी काम से कोई याद आएगा तो फोन करता हूं वरना फोन नहीं करता। ये मेरी कमी है। मैं नेटवर्किंग नहीं कर पाता। शराब की कुख्याति जुड़ी हुई है मेरे साथ, इसने मेरा बड़ा नुकसान किया है।

-आप अपने को कितना सफल और असफल मानते हैं?

--मैं अपने को सफल नहीं मानता। पत्रकारिता के बदलाव में मेरी भूमिका नहीं बन सकी। मैं एक नई शैली और सरोकार की पत्रकारिता को जन्म दे सकूं, ये मेरा इरादा था और है। पर अभी तक यह नहीं हो पाया। नकवी, रजत शर्मा, सबने मुझे बुला कर मौका दिया। पर टीवी में मैं कुछ खास नहीं कर पाया। मेरी ग्रोथ बहुत पहले सन् 85-86 में बंद हो चुकी थी। सन् 2000 तक किसी तरह सस्टेन किया। पायनियर, बीबीसी, वायस आफ अमेरिका, शाइनिंग मिरर (कैलीफोर्निया का अखबार) जैसे अखबारों के साथ काम करने के बावजूद मैं इसे सफल पारी नहीं कह सकता। सफलता तो सापेक्ष होती है। इतना कह सकते हैं कि मैंने ट्वेंटी-ट्वेंटी अच्छे से खेला, टेस्ट मैंच नहीं खेल पाया। मेरे कई मित्र बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। अजीत अंजुम कबसे इतना मेहनत किए जा रहा है। उनकी मेहनत करने की क्षमता देखकर मुझे ईर्ष्या होती है।

-आप दोस्ती कितना निभा पाते हैं?

--मुंहफट होने की वजह से रिश्ते बिगाड़ता बहुत जल्दी हूं। रविशंकर जो आजकल वीओआई में है, एक्सप्रेस के जमाने से मेरा दोस्त है। किसी बात पर झगड़ा हो गया। जी मंत्री जी की उसने समीक्षा लिखी तो मैंने फोन किया तो उसने कहा कि मैं तुमसे बात नहीं करना चाहता, तुम्हारा काम अच्छा है इसकी तारीफ करता हूं पर तुमसे बात करना जरूरी नहीं है। इसी तरह राजकिशोर से नहीं पटती। उनका लिखा मुझे अच्छा लगता है। अगर राजकिशोर और मुझको एक कमरे में बंद कर दो तो दोनों में से कोई एक ही बाहर निकलेगा और जो बाहर निकलेगा वो मैं ही हूंगा।

-आपको किस चीज से घृणा होती है?

--हिंदी पत्रकारिता में जो छदम आक्रामकता है, उससे मुझे घृणा है। प्रो एक्टिव जर्नलिज्म करनी है तो फिर सड़क पर आइए। हम लोगों ने भी आक्रामक पत्रकारिता की है और उसे सड़क पर आकर आखिर तक निभाया है। एक उदाहरण देना चाहूंगा। न्यू बैंक आफ इंडिया का आफिस जनसत्ता और इंडियन एक्सप्रेस की बिल्डिंग में ही था। इस बैंक के घपले और घोटाले के बारे में पता चला तो अखबार मालिकों के बिजनेस के इंट्रेस्ट के होते हुए भी हम लोगों ने इनके खिलाफ खुलकर लिखा और साथ ही, खुराना और वीपी सिंह के जरिए लोकसभा में सवाल उठवाए। आखिरकार यह बैंक बंद कर दिया गया।

-आपने शराब के बारे में बताया कि इसने आपको कुख्याति दी है। कैसी कुख्याति? शराब को लेकर अब क्या दर्शन है?

--बहुत दिनों से मैं शराब छोड़ चुका हूं। एम्स के डी-एडिक्शन सेंटर गया था। उन लोगों ने काफी सारी दवाइयां दीं लेकिन विल पावर हो तो दवाओं की कोई जरूरत नहीं होती। छोड़ दिया तो छोड़ दिया। इस जन्म का कोटा मैं पूरा कर चुका हूं। पर मैं अखबार में विज्ञापन देकर तो दुनियावालों को नहीं बता सकता न कि अब मैं शराब छोड़कर शरीफ बन गया हूं, आप सब लोग मुझ पर विश्वास करो (हंसते हुए)।

शराब को मैं बुराई नहीं मानता। शराब पीकर आदमी पारदर्शी हो जाता है। भावनाओं को ईमानदारी से व्यक्त करता है। शराबी से ज्यादा ईमानदार व्यक्ति कोई दूसरा नहीं होता। पर जिंदगी का जो कैलेंडर लेकर हम लोग आए हैं उसमें हमें तय करना होगा कि हम शराब पीने और हैंगओवर उतारने में कितना समय दें। शराब से मेरे कई बड़े निजी नुकसान हुए। राजीव शुक्ला की मैरिज एनीवरसरी उदयन शर्मा के घर पर थी। वहां कई दोस्त मिल गए और जमकर पी गया। टुन्न होकर घर लौट रहा था। रास्ते में एक्सीडेंट हो गया। पत्नी के माथे पर 32 टांके आए। इस घटना के लिए मैं अपने को कभी माफ नहीं कर पाऊंगा।

-कौन सा ब्रांड आपका फेवरिट था?

--मैं व्हिस्की पीता नहीं। रम और वोदका पीता था। वोदका में फ्यूल जो लैटेस्ट ब्रांड था, मेरा फेवरिट था। स्थिति यह थी कि जिस होटल में मेरे लिए कमरा बुक होता था उसमें फ्यूल की बोतलें पहले से रख दी जाती थीं।

-शराब ने कुछ फायदे भी दिए होंगे?

--शराब ने काफी कुछ दिया। शराब न पीता तो शर्मिष्ठा जैसी दोस्त न मिली होती। हम दोनों पार्टी में ही पहली बार मिले थे। शराब पीने के बाद ही एक बार पार्टी खत्म होने पर पदमा सचदेव और सुरेंद्र सिंह जी मिले, इन लोगों ने मुझे घर छोड़ा तो नशे की भावुकता में मैंने इनके पैर छू लिए। ये 20 साल पुरानी घटना है। वो रिश्ता आज तक कायम है। ज्यादातर ब्रेक मुझे दारू की पार्टी में ही मिले। जनसत्ता से निकाले जाने के बाद दारू की पार्टी में ही कई आफर मिले। सभी बड़े चैनलों के मालिकों ने वहीं आफर किए। दारू संपर्कशीलता को बढ़ाता है बशर्ते आप संयम में रहें और दूसरे को पीने दें। अटल जी के मैं बेहद नजदीक रहा, अब भी हूँ। यह रिश्ता कैसे घनिष्ठ हुआ, यह तो नहीं बताऊंगा पर उन्होंने एक दिन अपना प्रेस सलाहकार बनने के लिए कहा तो मैंने साफ मना कर दिया कि मैं सरकारी नौकरी नहीं करूंगा। कई लोग जानते भी हैं कि अटल जी के लाल किले के पहले भाषण को मैंने लिखा था। उसका एक डायलाग काफी हिट हुआ था जो पाकिस्तान के लिए कहा गया था, जंग करना चाहते हैं तो आइए जंग ही कर लें, लेकिन ये जंग दोनों मुल्कों में फैली बीमारियों से होगी, दोनों मुल्कों में जड़ जमा चुकी दुश्वारियों से होगी....। गोवा में एक बार बीजेपी कार्यकारिणी की बैठक थी। वहां की एक तस्वीर पड़ी होगी हम लोगों के पास जिसमें अटल जी टीशर्ट और जींस पहने नारियल पानी पी रहे हैं। यह भी पूरी एक कथा है जिसे बताना ठीक नहीं है।

-आपके उपर क्या क्या आरोप रहे हैं? आप खुद बता दें तो ज्यादा अच्छा।

--कई आरोप रहे हैं। एक तो यही कि शराबी हूं। झूठ बोलने के आरोप लगे। परिचित की गर्लफ्रेंड छीनने का आरोप लगा।

-आपको कौन सी कविता या शेर या गजल या गीत सबसे ज्यादा पसंद है?

--दिनकर जी की कुछ लाइनें मुझे बेहद पसंद हैं। वे इस तरह हैं- अंधतम के भाल पर पावक जलाता हूं। बादलों के शीश पर स्यंदन चलाता हूं। मर्त्य मानव की विजय का तूर्य हूं मैं। उर्वशी, अपने समय का सूर्य हूं मैं।

-आपको सबसे ज्यादा संतुष्टि किस चीज में मिलती है?

--अपनी बेटी की मुस्कान देखकर संतोष होता है। डीपीएस से आकर जब वो कहती है कि मेरे यहां लालू यादव की भतीजी भी पढ़ती है और जब उनके पापा को पता चला कि मैं आपकी बेटी हूं तो उन्होंने खुद को आपका मित्र बताते हुए मुझे बेस्ट विशेज दीं। यह कहते हुए बेटी के चेहरे पर जो दर्प और गर्व देखता हूं, उससे संतोष मिलता है। इससे बड़ी खुशी मेरे लिए कोई नहीं हो सकती।

-आपको दुख किस बात पर होता है?

--मेरे घर में मेरा कोई अपना कमरा नहीं है। कमरे चार हैं। पर मेरा कमरा इन चारों में से कोई नहीं है। मुझे हमेशा से एकांत अच्छा लगता रहा है। यहां घर में एकांत नहीं मिलता। बचपन में सीढ़ियों के किनारे कोने में भंडरिया के कोने को ही अपना कोना मानकर उसी में रहता था। बड़ा अच्छा लगता था। कम से कम यह एहसास तो होता था कि इतना कोना मेरा है। मैं कई बार तब दुखी होता हूं जब मैं जो कहना चाहता हूं वह कह नहीं पाता और सामने वाले कुछ और अर्थ निकाल लेते हैं। अंतर्मुखी स्वभाव है। देहाती आदमी हूं। कोशिश करता हूं कि मैं जो सोच रहा हूं वही कहूं लेकिन कह नहीं पाता।

-आलोक तोमर को उनके न रहने पर किस लिए याद करें? आपकी निजी इच्छा क्या है?

--मुझे अपने मां के बेटे के तौर पर और अपनी बेटी के पिता के तौर पर याद करें, इससे ज्यादा खुशी मुझे और किसी चीज में नहीं होगी। वैसे जल्दी निपटने वाला नहीं...मेरी गुरबत पे तरस खाने वालों मुझे माफ करो, मैं अभी जिंदा हूँ, और तुम से ज्यादा जिंदा। इन दिनों तो खैर गर्दिश में हूँ, आसमान का तारा हूँ।

-दिल्ली के पूर्व पुलिस आयुक्त केके पाल से अदावत और उनके इशारे पर गढ़े गए डेनिश कार्टून मामले ने आपके जीवन के सहज रूटीन को काफी दिनों से बाधित कर रखा है। इस मामले में आपकी हिंदी पत्रकार जगत से क्या अपेक्षा है और आगे की क्या रणनीति है?

--पहली बात तो हिंदी मीडिया के साथियों से मदद नहीं मिल पा रही है, यह सच है लेकिन यह भी सच है कि मुझे मदद की अपेक्षा भी नहीं। दरअसल कई साथियों को तो मजे लेने का बहाना मिल गया है। मीडिया जगत के साथियों के ये विवेक पर निर्भर करता है कि वे मदद करें या न करें। मैंने उनके कहने पर तो ये मामला शुरू नहीं किया। अकेले लड़ लूंगा। दुष्यंत की लाइनें हैं- हिम्मत से सच कहो तो बुरा मानते हैं लोग, रो-रो के बात कहने की आदत नहीं रही /हमने तमाम उम्र अकेले सफर किया, हम पर किसी खुदा की इनायत नहीं रही।

डेनिश कार्टून छापना या केके पाल से अदावत अगर कोई गलती थी तो ये मेरी गलती थी और इससे मैं खुद ही निपटूंगा। मुझे किसी से कोई उम्मीद नहीं है। जो वकील मेरा मामला देख रहे हैं, दोस्त बन गए हैं, संजीव झा नाम है उनका। मुझसे कभी फीस नहीं मांगी। हां, इस प्रकरण के चलते मुझे भी दिक्कतें आ रही हैं। आईआईएमसी के डायरेक्टर के तौर पर मेरा सब कुछ हो गया था लेकिन पुलिस वेरीफिकेशन में इस मामले के चलते रुकावट आ गई। नार्वे में एक प्रोग्राम के सिलसिले में निमंत्रण मिला था लेकिन मुझे वीजा नहीं मिला। तो ये सब दिक्कतें आईं। सबसे बड़ी दिक्कत मेरे परिजनों को तब हुई जब मैं तिहाड़ में था। मैं 12 दिन जेल में रहा और पत्नी व बिटिया यह सोचकर परेशान थीं कि जेल में मेरे साथ जाने क्या क्या हो रहा होगा। ये अलग बात है कि जेल में पप्पू यादव मुझे अंडे के पराठे खिलाते थे और बैडमिंटन खेलता था। पर उन लोगों ने तो फिल्मों की जेल देख रखी है। सोचते होंगे कि मैं चक्की पीस रहा हूं। तो ये सोचकर जो मानसिक यातना मेरी बेटी और पत्नी को हुई है, उसके लिए मैं केके पाल को कभी माफ नहीं कर सकता। केके पाल इन दिनों यूपीएससी का सदस्य है तो मैं यूजीसी की गवर्निंग बाडी का सदस्य हूं।

सच्चे क्षत्रिय और राजपूत की तरह कहता हूं-जो इसे जातिगत दर्प मानें, वे ठेंगे से, कि केके पाल के चलते मेरे परिजनों ने जो मानसिक यातना झेली है उसका बदला मैं न्याय की सीमा में लूंगा। मैं तब तक चैन से नहीं बैठूंगा जब तक वे अपने कर्मों के लिए दंडित नहीं होते।

-आलोक जी, आपको बहुत-बहुत शुक्रिया। आपने इतना वक्त दिया।

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