दस दिन पहले ही वीरेन दा और राजुल जी ने आश्वस्त किया था कि भाई साहब अब ठीक हैं, घर आ गए हैं। राजुल जी ने रात को बात करने की सलाह दी, जबकि वीरेन दा ने कहा कि अतुल जी जल्दी ही खुद फोन करेंगे। सुबह उनके बारे में चर्चा कर ही रहे थे कि दोपहर सवा बजे फोन पर मनहूस खबर मिली। अब वह कभी फोन नहीं करेंगे, न सुनेंगे और न बुलाकर समझाएंगे। दो दशक से ऊपर का यह साथ खत्म हुआ।
22 साल पहले उन्होंने ही मुझे मेरठ में बतौर सीनियर सब एडीटर नौकरी दी थी। मैं रात की पाली में काम करता था। गढ़वाल संस्करण छपने के बाद ही भाई साहब घर जाते थे और पहुंचते ही उनका फोन आता था। वह पेज और कॉलम नंबर गिना कर गलतियां बताते थे, और अगले संस्करण में उन्हें दुरुस्त करने को कहते थे। उनकी नजर गलतियों पर ही अटकती थी। वह न कभी साहब बने, न सर, वह हर छोटे-बड़े के भाई साहब थे। अकसर कहते कि हमने तो साथ ही पत्रकारिता सीखी है, लेकिन वह पहले दिन से मेरे गुरु थे। कोई भी खबर उनकी नजर से गुजरती, तो उसमें दो-चार एलीमेंट जुड़ जाते थे। तीस साल के कॅरियर में बहुत से खांटी संपादकों को भी मैंने इतना परफेक्शनिस्ट नहीं पाया। इतना बड़ा कारोबार और हर विभाग पर उतनी ही पकड़। इतनी क्षमता कि किसी भी घड़ी हर समस्या का हल उनकी टिप्स पर होता था। अखबार मालिक और संपादक से अलग एक ऐसा इनसान, जो हर साथी की पीड़ा अपने सीने में ले आते थे। 1992 में जब दफ्तर में करंट लगने के बाद मैं मेज पर लेटा था, तो भाई साहब खुद मेरे हाथ-पैर दबा रहे थे। मेरठ में आलोक भदोरिया जब ऑपरेशन टेबल पर थे, तो भाई साहब रात को खून देने के लिए लाइन में लगे थे। इस बार मुझे कानपुर भेजा, तो टीम की कमजोरियों पर बात हुई। बोले- जुयाल जी मैंने नौकरी देकर पुण्य तो खूब कमाए, लेकिन अखबार को मजबूत नहीं कर पाया। जब छंटनी और तबादले की बात आई, तो बोले- घर में जब कोई बूढ़ा हो जाता है, तो उसे बाहर तो नहीं फेंक देते, कुछ और आदमी रख लाजिए। हे ईश्वर! क्या सारे भले लोगों को उठा लोगे? भाई साहब! हम अनाथ महसूस कर रहे हैं। हम कोशिश करेंगे वैसा बनने की, जैसा आप चाहते थे।
दिनेश जुयाल
स्थानीय संपादक, कानपुर
आधी रात के बाद की चुनौती : बीते एक दशक में हिंदी अखबारों की दुनिया में भारी बदलाव आया है। एक ही अखबार के अलग-अलग शहरों से संस्करण निकलने लगे हैं। इस बेतहाशा वृद्धि के पीछे कुछ ठोस कारण मौजूद हैं। पहली बात, देश में साक्षरता के स्तर में खासी बढ़ोतरी हुई है। साक्षर लोगों की आबादी तेजी से बढ़ रही है और इसका असर अखबारों के विस्तार के रूप में नजर आ रहा है। दूसरी बात, अखबारों को तैयार करने की प्रौद्योगिकी और उनके वितरण की प्रणाली में उत्तरोत्तर प्रगति हुई है।
पहले दूसरे शहरों में अखबारों के बंडल ट्रेनों से भेजे जाते थे, लेकिन आज शायद ही कोई अखबार इस माध्यम को प्रयोग में लाता है। अब सभी समाचार पत्रों के पास अखबार को पाठकों तक पहुंचाने की अपनी परिवहन व्यवस्था है। जहां तक अमर उजाला की बात है, तो हम अपना अखबार बदरीनाथ तक अपने ही साधन से भेजते हैं। बेहतर वितरण प्रणाली के जरिये हम अखबारों के लिहाज से छोटे माने जाने वाले बाजारों में भी, दस्तक दे सकने में सफल हुए हैं। इसके अलावा पहले अखबार एक ही जगह से छपते थे और उसे अन्य शहरों में भेजा जाता था। मगर अब विभिन्न शहरों में अत्याधुनिक छपाई मशीनें लग गई हैं, जिससे अखबारों के वितरण में भी मदद मिलती है। आखिर कुछ साल पहले तक किसने सोचा था कि पानीपत जैसी जगह से भी अखबार छपने लगेंगे?
प्रौद्योगिकी ने अखबारों का काम आसान तो किया है, मगर इससे उनकी लागत भी बढ़ गई है और लगातार बढ़ती जा रही है। इसलिए पत्र समूहों को अब कहीं, अधिक निवेश करना पड़ रहा है। यह स्वीकार करना होगा कि अखबार एक ऐसा उत्पाद है, जिसकी जीवन अवधि बहुत सीमित होती है। ऐसे में अखबार को तैयार कर उसे पाठकों तक पहुंचने के लिहाज से समय का अत्यंत महत्व होता है। मान लीजिए, हम नोएडा से अपने हरियाणा संस्करण की छपाई करते हैं और कोई दूसरा अखबार पानीपत से। तब वह अखबार तो खबरों के कवरेज के मामले में दो-ढाई घंटे आगे रहेगा। कहने का मतलब अखबारों में समय को लेकर भी प्रतिस्पर्धा बढ़ी है।
अखबारों के सामने एक और चुनौती खबरिया चैनलों से भी है। इसने पाठकों की अखबारों से अपेक्षाएं बदल दी है। पहले लोग हार्ड न्यूज के लिए अखबार खरीदते थे, मगर अब तो वे ये सब खबरें खबरिया चैनल में देख ही लेते हैं। टेलीविजन में तो हर घंटे कोई न कोई खबर ब्रेक होती रहती है। जाहिर है, खबरें ब्रेक करने के मामले में टीवी चैनलों का एकाधिकार-सा हो गया है। असल में हमारी (अखबारों की) भूमिका दर्शकों के खबरिया चैनलों के आखिरी बुलेटिन देख लेने, यानी मध्य रात्रि के बाद शुरू होती है। आधी रात तक खबरों में जो कुछ दिखाया या बताया जा चुका होता है, हमें उससे परे जाकर खबर को देखने की जरूरत होती है। हमें विभिन्न खबरों या स्टोरीज पर अगले दिन होने वाले घटनाक्रम का अनुमान लगाना होता है। हम अगले दिन के संभावित घटनाक्रम पर अपना नजरिया पेश करते हैं। यह बेहद चुनौतीपूर्ण काम होता है।
खबरिया चैनलों के बीच आपस में भी काफी प्रतिस्पर्धा है और इसी होड़ में वे कई बार खबर पहले ब्रेक करने के फेर में गलतियां करते हैं और इससे उनकी विश्वसनीयता पर काफी बुरा असर भी पड़ता है। अखबारों के पास खबर को पुष्ट करने का मौका होता है, वे एक नहीं, दो नहीं, तीन बार इसकी पुष्टि कर सकते हैं। खबरिया चैनलों ने यूपी सहित पूरी हिंदी पट्टी में दखल तो दी है, मगर यहां तमिलनाडु जैसी स्थिति नहीं है, जहां टीवी चैनलों की पहुंच भीतर तक है। टीवी चैनल महानगरों पर केंद्रित हैं और उनका महानगरों में असर भी है, मगर ग्रामीण इलाकों के घर-घर तक पहुंचने में अभी वक्त है।
अखबारों के मामले में एक बड़ा बदलाव और आया है, वह यह कि क्षेत्रीय अखबार क्षेत्रीय और स्थानीय मुद्दों को पहले से आक्रामक तरीके से कवर कर रहे हैं। मसलन, मेरठ में जब बाढ़ आई थी और पूरे शहर का जनजीवन ठप पड़ गया था, तब हमने इससे संबंधित खबरों को उन दिनों की कई राष्ट्रीय सुर्खियों से अधिक तरजीह देते हुए पहले पेज पर छापा था। उत्तर प्रदेश के बाजार से हम अच्छी तरह से वाकिफ हैं। प्रदेश के कोने-कोने तक हमारी पहुंच है और हमें बाजार की नब्ज का पता है। ऐसे में हम उद्योगों को उनके लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकते हैं। अखबारों के मूल्य को लेकर प्रतिस्पर्धा कोई नई नहीं है। हैरत नहीं होनी चाहिए कि भारत में अखबारों के दाम सबसे कम हैं। यहां तक कि बांग्लादेश और पाकिस्तान में भी अखबार महंगे हैं। पाकिस्तान के डॉन अखबार की कीमत 14 रुपये है।
पहले की तुलना में अब पाठकों के पास समय कम है। अखबारों से आज उनकी अपेक्षाएं भी बदल गई हैं। हमें पाठकों की अपेक्षाओं के अनुरूप अखबार को ढालना होता है। हम इस हकीकत को नजरअंदाज नहीं कर सकते। हमारा नया ले-आउट और डिजाइन पाठकों की इन अपेक्षाओं पर खरा उतरता है। इसके साथ ही हमने विज्ञापनों की दिशा में भी काम किया है, ताकि क्लाइंट्स को अधिक लाभ हो सके। हमें यह स्वीकार करना होगा कि स्थानीय और क्षेत्रीय पेज किसी भी अखबार की ताकत होते हैं। स्थानीय खबरों की बेहतरीन कवरेज ही अमर उजाला की ताकत है। बीते कुछ वर्षों में हमने विभिन्न क्षेत्रों में निरंतर विस्तार किया है और आज देश के 120 जिलों में हमारी पहुंच है। अमर उजाला अपने मूलभूत मूल्यों के प्रति समर्पित रहा है और हम इस दिशा में आगे भी काम करते रहेंगे
सर्वश्रेष्ठ प्रबंधक थे अतुल जी : "है मौत उसी की जिस पर करे जमाना अफसोस, यूं तो मरने के लिए सभी आया करते हैं।" संपादकीय और प्रबंधन के बीच की रार-तकरार और उनसे उपजने वाली दिक्कतों से तकरीबन सभी मीडियाकर्मी परिचित होते हैं। हिंदी पट्टी के प्रमुख अखबारों में इस तकरार को भलीभांति अनुभव किया जा सकता है। लेकिन अमर उजाला परिवार के लोगों में से अधिकांश को शायद ही इस रार-तकरार से कोई सरोकार हो। अमर उजाला में संपादकीय की सर्वोच्चता हमेशा रही है। प्रबंधन को कभी संपादकीय के आड़े नहीं आने दिया गया।
इसका प्रमुख कारण अमर उजाला के प्रबंध निदेशक श्री अतुल महेश्वरी की दूरदर्शिता थी। वे दूरगामी निर्णय लेते थे। उनमें कुशल प्रबंधन क्षमता थी। वे संपादकीय में प्रबंधन को कतई हस्तक्षेप नहीं करने देते थे। उनमें हर विभाग में संतुलन बनाने की बेहतर कला थी। शायद हिंदी के प्रमुख अखबारों मसलन दैनिक जागरण, भास्कर, हिंदुस्तान या अन्य को मेरी कही बात बुरी लग जाए लेकिन सत्य कटु ही होता है। अमर उजाला को देश के सर्वश्रेष्ठ तीन अखबारों में शुमार करने का श्रेय अतुल जी को ही जाता है। इसे पाने के लिए दूरदर्शिता और प्रबंधकीय कौशल को अमर उजाला से जुड़ा हर शख्स बहुत बेहतर ढंग से जानता और मानता है। लेकिन इसके अलावा भी सबसे बड़ी बात जो अन्य अखबारों की तुलना में अतुल जी को बहुत बड़ा, पूजनीय और आदर्श बनाती है वो है उनका सर्वश्रेष्ठ मानव संसाधन प्रबंधन कौशल और कर्मचारियों के हित में लिए जाने वाले निर्णय।
मैं यहां अन्य अखबारों को नीचा दिखाने की नहीं बल्कि उनके प्रबंधकों को स्वर्गीय श्री अतुल महेश्वरी जी से सबक लेने की कोशिश कर रहा हूं। वो भी यह कि ऊंचा उठने के दो रास्ते होते हैं पहला कि अपने साथ वाले लोगों को नीचे दबाकर फिर उन पर खड़ा होकर ऊंचा हुआ जाए, दूसरा अपने साथ वालों को इतना ऊंचा कर दिया जाए कि खुद का कद और ऊंचा हो जाए। पहला तरीका जागरण, भास्कर और हिंदुस्तान अपना रहे हैं। जबकि दूसरा तरीका स्वर्गीय अतुल जी ने बेहतर ढंग से अपनाया।
अपने कर्मचारियों को प्रमुख हिंदी अखबारों की तुलना में सबसे बेहतर सुविधाएं, वेतनभत्ते, सम्मान, प्रोन्नति देने में उनका कोई सानी नहीं। अमर उजाला के कर्मचारी अन्य अखबारों की तुलना में खुद को इस मामले में काफी आगे मानते हैं। लेकिन अन्य अखबारों में इस बात की कमी के चलते वहां असंतोष और समस्याएं फैली हुई हैं। कर्मचारियों के हितों की अनदेखी कर मालिक-प्रबंधन अपनी जेबें भरने और स्वार्थ साधने में जुटे हुए हैं। कर्मचारियों को उठाकर ऊपर उठने से इन्हें कोई वास्ता नहीं।
यूं तो मैं अमर उजाला का एक कर्मचारी मात्र हूं और अभी तक तीन-चार बार ही उनसे रूबरू हुआ। अकेले में उनसे कभी बात नहीं हो सकी। हर बार बैठक में उन्हें बोलते और सभी से अपना पक्ष रखने के लिए कहते सुना। अपने सबसे कनिष्ठ कर्मचारी के साथ बैठकर विचार विमर्श करने की क्षमता शायद ही किसी अन्य अखबार के मालिकों में हों।
एक और हतप्रभ और चिंतित कर देने वाली बात है जिसके कारण मैं अतुल जी को कुछ दोष भी देना चाहूंगा कि अपने खराब स्वास्थ्य की जानकारी उनके परिवार के अलावा किसी को नहीं थी। पिछले साल उनके ऑपरेशन के बाद इस वर्ष भी वे जब गुड़गांव के फोर्टिंस अस्पताल में दाखिल हुए तो अमर उजाला के वरिष्ठ संपादकीय, प्रबंधकीय कर्मियों को इसकी कानोंकान खबर तक नहीं हुई। जानकारों के मुताबिक अतुल जी नहीं चाहते थे कि उनके बिगड़े स्वास्थ्य की खबर से काम में किसी भी प्रकार की बाधा पड़े। यदि वे समय रहते इसके बारे में बताते तो देश-विदेश के बड़े अस्पतालों में उनका आसानी से इलाज कराया जा सकता था। लेकिन कर्मठता को वरीयता देने की उनकी फितरत ही उन्हें दी दगा दे गई।
आज अतुल जी के असामायिक निधन ने इस बात को सामने लाने के लिए मजबूर किया। समूचे मीडिया जगत के लिए और मीडिया में अपना करियर तलाश रहे युवाओं के लिए यह बड़ी ही दुखद और अपूर्णनीय क्षति है। एक लंबे सफर के कुशल मार्गदर्शक और विनम्र स्व. अतुल जी मीडिया जगत के लिए एक पथ प्रदर्शक की तरह जिए।
लेखक कुमार हिंदुस्तानी का यह लिखा उनके ब्लाग से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया
‘सर, याद होगा आपको जब हम बरेली कॉलेज में पढ़ते थे, तो आप अकसर हमारी क्लास में कहा करते थे कि मुझे इनमें से एक भी लड़के की आंख में चिनगारी नहीं दिखती, सपने नहीं दिखते, तभी मैंने सोच लिया था कि कुछ करके दिखाऊंगा, आज एक बड़े काम की शुरुआत के गवाह आप भी हैं’ : एक अजब-सी बेचैनी, अजब-सी आशंकाएं मन को घेरे हुए थीं, कई दिनों से। तो क्या वह ऐसी ही मर्मांतक, अनहोनी का संकेत थीं, सोचने को विवश हूं। अतुल नहीं रहा, उसका पार्थिव शरीर भी पंचतत्व में विलीन हो गया। किसी बुरे सपने जैसा इतना डरावना सच। इसका सामना करने का साहस अपने भीतर तलाश रहा हूं।
जवाब देंहटाएंइसलिए नहीं कि मैंने होनहार शिष्य खोया। करीबी दोस्त खोया। या कि वह शख्स जुदा हुआ, जिसने ताउम्र आदर के सिवा कुछ न दिया। बल्कि इसलिए कि जो गया वह एक बेहतरीन इनसान था। वैसा कोई मुश्किलों से पैदा होता है। और इसलिए भी कि वह बहुतों का सहारा था। किसी का नाविक, तो बहुतों के लिए मार्गदर्शक, किसी लाइट हाउस की तरह। हजारों का जीवन उसकी दिखाई रोशनी में सही राह पकड़ सके। फिर भी कोई अहंकार नहीं। उसका जाना किसी बड़े सपने के दम तोड़ने की तरह है। ऐसा इसलिए कह सकता हूं कि लोग सपने देखते हैं, अतुल उन्हें साकार करना जानता था।
मेरठ में एक रात पता चला कि कैसे सपने बरसों-बरस पलते हैं और फिर साकार होते हैं। मेरठ में अमर उजाला की शुरुआत हुई थी। हम सभी पंडित प्यारेलाल शर्मा रोड पर एक गेस्ट हाउस के बड़े से कमरे में रहते थे। जमीन पर बिछा बिस्तर। वहीं एक रात अतुल ने कहा था, ‘सर, याद होगा आपको जब हम बरेली कॉलेज में पढ़ते थे, तो आप अकसर हमारी क्लास में कहा करते थे कि मुझे इनमें से एक भी लड़के की आंख में चिनगारी नहीं दिखती। सपने नहीं दिखते। तभी मैंने सोच लिया था कि कुछ करके दिखाऊंगा। आज एक बड़े काम की शुरुआत के गवाह आप भी हैं।’
फिर तो पत्रकारिता के तमाम नए प्रतिमान गढ़े गए। वह जोश ही नहीं, जुनून भी था। लेकिन होश हमेशा चौकस रखा उसने। मेरठ के दंगे, हाशिमपुरा कांड, टिकैत के आंदोलन और बाद में राम मंदिर आंदोलन। हर मौके पर मूल्यों की जिस पत्रकारिता का निर्वाह अमर उजाला में हुआ, वह दुर्लभ है। यह सबकुछ अतुल की सोच की बदौलत था। उसकी उस जिम्मेदारी की वजह से था, जो एक पत्रकार के नाते वह देश-समाज के प्रति महसूस किया करता था।
व्यावसायिक ऊंचाइयां छूने के बाद भी वह भीतर से बेहद भोला था। बहुतों से उसे धोखा मिला, लेकिन वह विश्वास करता था, तो टूटकर करता था। उसकी विलक्षण कार्य क्षमताओं से मैं भी चमत्कृत रह जाता था। अखबार से जुड़ी कौन-सी चीज बेहतर है, दुनिया में कहां क्या घटित हो रहा है, उसे सब पता रहता था। निश्चित ही ऐसे बहुत कम लोग होते हैं, जिनमें इतनी खूबियां एक साथ देखने को मिले।
सरलता इतनी कि निजी से निजी मुद्दे पर भी हम बात कर लेते थे। यह सब उतनी ही सहजता से होता था, जब बरेली में अमर उजाला के काम के दिनों में एक ही ‘जावा’ में उसके साथ तीन लोगों का बैठकर प्रेमनगर से प्रेस तक आना या फिर रास्ते में रुककर कहीं भी कुल्फी खा लेना। मैं उससे उम्र में थोड़ा-सा बड़ा था। ग्रेजुएशन के दिनों में उसका टीचर भी था, तो डांट भी लेता था। कभी मेरी कोई बात नहीं मानी, बाद में महीनों बाद भी उसे गलती का पता चलता, तो बेलौस माफी मांग लेता। यह बिलकुल प्लेन कंफेशन की तरह था। कई बार मैं नाराज हुआ। अखबार से अलग हुआ। लेकिन कितने दिन, उसकी माननी ही पड़ती थी। शायद हम अलग-अलग होने के लिए बने ही नहीं थे। मुझे तो यहां तक लगता है कि हम एक ही चीज के दो अंश थे। अब तो एक हिस्सा ही नहीं रहा...।
अपनापन मोह पैदा करता है यह तो जानता था, लेकिन वहमी भी बना देता है, अब समझ में आया। वह अस्पताल में है, जानता था। नोएडा ऑफिस जाकर भी लौट आता, उससे मिलने फोर्टिस अस्पताल न गया। यह वही अस्पताल है, जिसमें कुछ समय पहले मेरे एक अन्य अजीज मित्र की मौत हुई थी, जब मैं उन्हें देखकर लौट आया था। इसे वहम ही कहूंगा, इसलिए मन न होता वहां जाने को। वह ठीक हुआ। घर लौटा। फिर दिक्कत हुई, तो दूसरे अस्पताल में भर्ती कराया गया। उसे देखने को मन अटका हुआ था। जाने ही को था कि यह मनहूस खबर आई। अब तो बस, मैं अकेला हो गया हूं। मैं हूं और उसकी यादे हैं।
लेखक वीरेन डंगवाल जाने-माने कवि और पत्रकार हैं. बरेली कालेज में शिक्षण कार्य किया और अतुल माहेश्वरी के शिक्षक रहे. अमर उजाला के साथ कई वर्षों तक संबद्ध रहे. उनका यह लिखा अमर उजाला से साभार लेकर यहां प्रकाशित किया गया है