आबादी और पैदावार में संतुलन की जरूरत.. (16 अक्टूबर, विश्व खाद्य दिवस पर विशेष)
हेमंत कुमार पांडेय
नई दिल्ली, 15 अक्टूबर । विश्व समाज के संतुलित विकास के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य का सर्वागीण विकास हो। विश्व में लोगों को संतुलित भोजन की इतनी मात्रा मिले कि वे कुपोषण के दायरे से बाहर निकलकर एक स्वस्थ जीवन जी सकें। लोगों को संतुलित भोजन मिल सके इसके लिए आवश्यक है कि विश्व में खाद्यान्न का उत्पादन भी पर्याप्त मात्रा में हो।
दिन पर दिन विश्व की जनसंख्या में हो रही वृद्धि और खाद्य पदार्थो के सीमित भंडार को देखते हुए खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने की जरूरत महसूस की गई।
इसे ध्यान में रखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने 16 अक्टूबर 1945 को रोम में खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की स्थापना की। संसार में व्याप्त भूखमरी के प्रति लोगों में जागरूकता फैलाने एवं इसे खत्म करने के लिए 1980 से 16 अक्टूबर को विश्व खाद्य दिवस का आयोजन शुरू किया गया।
विश्व खाद्य दिवस का उद्देश्य खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाने के लिए विकासशील देशों के मध्य तकनीकी एवं वित्तीय सहयोग बढ़ाना और विकसित देशों से आधुनिक तकनीकी मदद उपलब्ध कराना है। संयुक्त राष्ट्र की तमाम संस्थाओं द्वारा विकासशील देशों में गरीबी एवं भूखमरी से निपटने के लिए तमाम प्रयास भी शुरू किए गए। खासतौर पर अफ्रीका महाद्वीप के रवांडा, बुरुं डी, नाइजीरिया, सेनेगल, सोमालिया और इरीट्रिया आदि देशों में जहां यह समस्या काफी भयावह है।
एफएओ के आंकड़ों के अनुसार 2006-08 के मध्य आये आर्थिक एवं कृषि संकट के कारण 2010 तक विश्व में 92 करोड़ पचास लाख लोग भूख का सामना कर रहे थे। भूख एवं युद्ध की मार झेल रहे अफ्रीकी देशों में इस दौरान 2007 में सात फीसदी एवं 2008 में आठ फीसदी की दर से कुपोषितों की संख्या में वृद्धि हुई।
नई तकनीकी का अधिकत लाभ विकसित देशों को हुआ है जहां पर सरकारें बड़ी मात्रा में राजकोषीय सहायता मुहैया कराती हैं। भारत सहित अनेक विकासशील देशों में किसानों को सरकारी सहायता न मिल पाने के कारण कृषि उत्पादन प्रभावित हुआ है। जनसंख्या वृद्धि के कारण खाद्यान्न समस्या का सबसे अधिक सामना विकासशील देश कर रहे हैं।
सवा अरब आबादी वाले भारत जैसे देश में, जहां सरकारी आकलनों के अनुसार 32 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रहे हैं, अत्यंत शोचनीय है। एफएओ के अनुसार भारत में 2009 में 23 करोड़ 10 लाख लोग चरम भूखमरी का सामना कर रहे थे। आज भी स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है।
देश में खाद्यान्न का उत्पादन बड़े स्तर पर होने के बावजूद बहुत बड़ी आबादी भूखमरी का संकट झेल रही है। तेजी से आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर भारत का विश्व भूखमरी सूचकांक में 88 देशों में 66वां स्थान है। भारत से बेहतर भूखमरी से पीड़ित अफ्रीकी देशों नाइजीरिया, कांगों, बेनिन, चाड, सूडान आदि देश हैं। राज्य स्तर पर तो और भी व्यापक असमानता देखने को मिलती है। झारखण्ड, उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और राजस्थान आदि में भूख एवं कुपोषण से पीड़ित लोगों की संख्या अन्य भागों से अधिक है।
आबादी बढ़ने एवं खाद्यान्न की स्थिर पैदावार के कारण देश में प्रति व्यक्ति अनाज की खपत घटती जा रही। यूनीसेफ की एक रिपोर्ट अनुसार भारत में प्रतिदिन 5000 बच्चे कुपोषण के शिकार होते जा रहे हैं। जन वितरण प्रणाली के माध्यम से गरीबों को मिलने वाला अनाज भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रहा है।
कृषि क्षेत्र लगातार सरकारी उपेक्षा का शिकार हो रहा है। आज देश की अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी मात्र 14 फीसदी है और इस पर 55 फीसदी कामगारों की आजीविका चलती है। आज कृषि क्षेत्र कभी एक फीसदी, दो फीसदी या फिर ऋणात्मक दर से वृद्धि कर रहा है। आजादी के 65 वर्ष बीत जाने के बाद आज भी साठ फीसदी खेती वर्षा के सहारे हो रही है।
विश्व की आबादी 2050 तक नौ अरब होने का अनुमान लगाया जा रहा है और इसमें करीब 80 फीसदी लोग विकासशील देशों में रहेंगे। ऐसे में किस तरह खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित किया जाए यह एक बड़ा प्रश्न है।
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