करगिल युद्ध के हीरो शहीद कैप्टन विक्रम बत्रा के बलिदान को पाकिस्तान में भी लोग याद करते हैं
पिता जी एल बतरा ने कहा कि सरकार से जो मांग उठाई थी वह 20 साल बाद भी पूरी नहीं हुई
धर्मशाला, 07 जुलाई (विजयेन्दर शर्मा)। करगिल युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा के शहीदी दिवस पर जिला कांगडा के कई भागों में आज उन्हें याद किया गया मुख्य रूप् में पालमपुर में लोगों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी व उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया ।
करगिल युद्ध में उनकी ओर से दिखाये गये अदम्य साहस को आज भी याद किया जाता है। अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया।
उनके पिता जी एल बतरा का कहना है कि कै. विक्रम बत्तरा की बहादुरी के किस्से भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी सुनाए जाते हैं। पाक सेना उन्हें शेरशाह कहा करती थी। बकौल गिरधारी लाल, आग्रह के बावजूद वीर जवानों की जीवनी को पाठ्य पुस्तकों में अब तक जगह नहीं मिल पाई है।
जी एल बतरा बताते हैं कि एक सज्जन ने बलिदानी की जीवनी पर पुस्तक लिखकर प्रकाशित की है और यह बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक साबित हो रही है। बलिदानी के स्वजन का अंतिम विचार यही था कि जो युद्ध से लौटकर नहीं आए हैं, के सम्मान का ध्यान समाज और सरकारें रखें। उन्होंने बतरा मैदान के समीप स्थापित बलिदानी प्रतिमा को लेकर 20 वर्ष पहले उठाए सवालों का अभी तक हल न होने पर भी चिंता व्यक्त की है। उन्हें रंज है कि पालमपुर में बनाई गई प्रतिमा उनके बेटे की शक्ल से मेल नहीं खाती है।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला के पालमपुर से सटे बंदला में जीएल बत्तरा व कांता बत्तरा के घर 9 सितंबर, 1974 को पैदा हुये विक्रम बत्तरा ने डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई की ,व इस दौरान उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। सेना में चयन विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। व उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया।
हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।
इससे पहले 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिठी में लिखा -प्रिय कुशु, मैं पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं, जिंदगी खतरे में है। यहां कुछ भी हो सकता है। गोलियां चल रही हैं। मेरी बटालियन के एक अफसर आज शहीद हो गये। नार्दन कंमाड में सभी की छुट्टी कैंसिल हो गई है। पता नही कब वापिस आऊंगा। तुम मां और पिताजी का ख्याल रखना यहाँ कुछ भी हो सकता है।
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध अदम्य साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष 'यह दिल मांगे मोर' कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें 'कारगिल का शेर' की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो भारतीय मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
वीरगति को प्राप्त होने से पहले कैप्टन बत्रा ने बताया था कि कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल जोशी जो रेडियो सेट पर थे,के नेतृत्व में उनकी ब्रेवो कंपनी ने टारगेट को फतेह करने के लिये प्रयास किया तो , मेरे साथी चाहते थे कि दुशमनों के और बंकर नेस्तनाबूद किये जायें। लिहाजा वहीं से मैंने कहा कि कि दिल मांगे मोर। फिर उसी जनून के साथ हमनें चोटी फतेह कर ली।
कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था । अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और माँ भारती का यह लाडला जय माता दी कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ।
अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया।
जी एल बत्तरा बताते हैं कि जिस उम्र में युवाओं को अच्छे बुरे की पहचान भी नहीं होती उस उम्र में यानी 18 साल की उम्र में विक्रम ने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। उन्हें अपने बेटे पर गर्व है।
पालमपुर में उनके परिवार को शहादत के बाद पेटरोल पंप मिला है। वहीं प्रदेश सरकार ने उनकी याद में परिध्रि गृह के पास प्रतिमा स्थापित की है। और पालमपुर के डिग्री कालेज को भी शहीद कैप्टन विक्रम बत्तरा कालेज नाम दिया गया है। वहीं पालमपुर में शहीद बत्तरा मार्ग भी है।
लेकिन उनके पिता जीएल बत्तरा कहते हैं कि सरकार परमवीर चक्र विजेताओं के लिये कोई सम्मानजनक योजना नहीं बना पाई है। उनका मानना है कि जिस तरह खिलाडिय़ों को सम्मान दिया जता है, वैसा सम्मान परमवीर चक्र विजेताओं को मिलना चाहिये। वहीं देश भर के स्कूल कालेज के सिलेबस में परम वीर चक्र विजेताओं का जीवन वृतांत को भी लाया जाना चाहिये।
पिता जी एल बतरा ने कहा कि सरकार से जो मांग उठाई थी वह 20 साल बाद भी पूरी नहीं हुई
धर्मशाला, 07 जुलाई (विजयेन्दर शर्मा)। करगिल युद्ध के दौरान कैप्टन विक्रम बत्रा के शहीदी दिवस पर जिला कांगडा के कई भागों में आज उन्हें याद किया गया मुख्य रूप् में पालमपुर में लोगों ने उन्हें भावभीनी श्रद्धांजलि दी व उनकी प्रतिमा पर माल्यार्पण किया गया ।
करगिल युद्ध में उनकी ओर से दिखाये गये अदम्य साहस को आज भी याद किया जाता है। अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया।
उनके पिता जी एल बतरा का कहना है कि कै. विक्रम बत्तरा की बहादुरी के किस्से भारत में ही नहीं बल्कि पाकिस्तान में भी सुनाए जाते हैं। पाक सेना उन्हें शेरशाह कहा करती थी। बकौल गिरधारी लाल, आग्रह के बावजूद वीर जवानों की जीवनी को पाठ्य पुस्तकों में अब तक जगह नहीं मिल पाई है।
जी एल बतरा बताते हैं कि एक सज्जन ने बलिदानी की जीवनी पर पुस्तक लिखकर प्रकाशित की है और यह बच्चों के लिए ज्ञानवर्धक साबित हो रही है। बलिदानी के स्वजन का अंतिम विचार यही था कि जो युद्ध से लौटकर नहीं आए हैं, के सम्मान का ध्यान समाज और सरकारें रखें। उन्होंने बतरा मैदान के समीप स्थापित बलिदानी प्रतिमा को लेकर 20 वर्ष पहले उठाए सवालों का अभी तक हल न होने पर भी चिंता व्यक्त की है। उन्हें रंज है कि पालमपुर में बनाई गई प्रतिमा उनके बेटे की शक्ल से मेल नहीं खाती है।
हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिला के पालमपुर से सटे बंदला में जीएल बत्तरा व कांता बत्तरा के घर 9 सितंबर, 1974 को पैदा हुये विक्रम बत्तरा ने डीएवी कॉलेज चंडीगढ़ में विज्ञान विषय में स्नातक की पढ़ाई की ,व इस दौरान उन्होंने सेना में जाने का पूरा मन बना लिया और सीडीएस (सम्मिलित रक्षा सेवा) की भी तैयारी शुरू कर दी। हालांकि विक्रम को इस दौरान हांगकांग में भारी वेतन में मर्चेन्ट नेवी में भी नौकरी मिल रही थी, लेकिन देश सेवा का सपना लिए विक्रम ने इस नौकरी को ठुकरा दिया। सेना में चयन विज्ञान विषय में स्नातक करने के बाद विक्रम का चयन सीडीएस के जरिए सेना में हो गया। जुलाई 1996 में उन्होंने भारतीय सेना अकादमी देहरादून में प्रवेश लिया। व उन्हें 6 दिसंबर 1997 को जम्मू के सोपोर नामक स्थान पर सेना की 13 जम्मू-कश्मीर राइफल्स में लेफ्टिनेंट के पद पर नियुक्ति मिली। उन्होंने 1999 में कमांडो ट्रेनिंग के साथ कई प्रशिक्षण भी लिए। 1 जून 1999 को उनकी टुकड़ी को कारगिल युद्ध में भेजा गया।
हम्प व राकी नाब स्थानों को जीतने के बाद उसी समय विक्रम को कैप्टन बना दिया गया। इसके बाद श्रीनगर-लेह मार्ग के ठीक ऊपर सबसे महत्त्वपूर्ण 5140 चोटी को पाक सेना से मुक्त करवाने का जिम्मा भी कैप्टन विक्रम बत्रा को दिया गया। बेहद दुर्गम क्षेत्र होने के बावजूद विक्रम बत्रा ने अपने साथियों के साथ 20 जून 1999 को सुबह तीन बजकर 30 मिनट पर इस चोटी को अपने कब्जे में ले लिया।
इससे पहले 16 जून को कैप्टन ने अपने जुड़वां भाई विशाल को द्रास सेक्टर से चिठी में लिखा -प्रिय कुशु, मैं पाकिस्तानियों से लड़ रहा हूं, जिंदगी खतरे में है। यहां कुछ भी हो सकता है। गोलियां चल रही हैं। मेरी बटालियन के एक अफसर आज शहीद हो गये। नार्दन कंमाड में सभी की छुट्टी कैंसिल हो गई है। पता नही कब वापिस आऊंगा। तुम मां और पिताजी का ख्याल रखना यहाँ कुछ भी हो सकता है।
शेरशाह के नाम से प्रसिद्ध अदम्य साहस और पराक्रम की प्रतिमूर्ति विक्रम बत्रा ने जब इस चोटी से रेडियो के जरिए अपना विजय उद्घोष 'यह दिल मांगे मोर' कहा तो सेना ही नहीं बल्कि पूरे भारत में उनका नाम छा गया। इसी दौरान विक्रम के कोड नाम शेरशाह के साथ ही उन्हें 'कारगिल का शेर' की भी संज्ञा दे दी गई। अगले दिन चोटी 5140 में भारतीय झंडे के साथ विक्रम बत्रा और उनकी टीम का फोटो भारतीय मीडिया में आया तो हर कोई उनका दीवाना हो उठा। इसके बाद सेना ने चोटी 4875 को भी कब्जे में लेने का अभियान शुरू कर दिया। इसकी भी बागडोर विक्रम को सौंपी गई। उन्होंने जान की परवाह न करते हुए लेफ्टिनेंट अनुज नैयर के साथ कई पाकिस्तानी सैनिकों को मौत के घाट उतारा।
वीरगति को प्राप्त होने से पहले कैप्टन बत्रा ने बताया था कि कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल जोशी जो रेडियो सेट पर थे,के नेतृत्व में उनकी ब्रेवो कंपनी ने टारगेट को फतेह करने के लिये प्रयास किया तो , मेरे साथी चाहते थे कि दुशमनों के और बंकर नेस्तनाबूद किये जायें। लिहाजा वहीं से मैंने कहा कि कि दिल मांगे मोर। फिर उसी जनून के साथ हमनें चोटी फतेह कर ली।
कैप्टन के पिता जी.एल. बत्रा कहते हैं कि उनके बेटे के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टीनेंट कर्नल वाय.के.जोशी ने विक्रम को शेर शाह उपनाम से नवाजा था । अंतिम समय मिशन लगभग पूरा हो चुका था जब कैप्टन अपने कनिष्ठ अधिकारी लेफ्टीनेंट नवीन को बचाने के लिये लपके। लड़ाई के दौरान एक विस्फोट में लेफ्टीनेंट नवीन के दोनों पैर बुरी तरह जख्मी हो गये थे। जब कैप्टन बत्रा लेफ्टीनेंट को बचाने के लिए पीछे घसीट रहे थे तब उनकी की छाती में गोली लगी और माँ भारती का यह लाडला जय माता दी कहते हुये वीरगति को प्राप्त हुआ।
अपनी वीरता, जोश-जूनून, दिलेरी और नेतृत्व क्षमता से 24 साल की उम्र में ही सबको अपना दीवाना बना देने वाले इस वीर योद्धा को 15 अगस्त 1999 को वीरता के सबसे बड़े पुरस्कार परमवीर चक्र से सम्मानित गया जो उनके पिता जी.एल. बत्रा ने प्राप्त किया।
जी एल बत्तरा बताते हैं कि जिस उम्र में युवाओं को अच्छे बुरे की पहचान भी नहीं होती उस उम्र में यानी 18 साल की उम्र में विक्रम ने नेत्र दान करने का निर्णय ले लिया था। उन्हें अपने बेटे पर गर्व है।
पालमपुर में उनके परिवार को शहादत के बाद पेटरोल पंप मिला है। वहीं प्रदेश सरकार ने उनकी याद में परिध्रि गृह के पास प्रतिमा स्थापित की है। और पालमपुर के डिग्री कालेज को भी शहीद कैप्टन विक्रम बत्तरा कालेज नाम दिया गया है। वहीं पालमपुर में शहीद बत्तरा मार्ग भी है।
लेकिन उनके पिता जीएल बत्तरा कहते हैं कि सरकार परमवीर चक्र विजेताओं के लिये कोई सम्मानजनक योजना नहीं बना पाई है। उनका मानना है कि जिस तरह खिलाडिय़ों को सम्मान दिया जता है, वैसा सम्मान परमवीर चक्र विजेताओं को मिलना चाहिये। वहीं देश भर के स्कूल कालेज के सिलेबस में परम वीर चक्र विजेताओं का जीवन वृतांत को भी लाया जाना चाहिये।