वाले कश्मीरियों का कहना है कि सरकार को विवादास्पद सशस्त्र बल विशेष
शक्तियां अधिनियम (एएफएसपीए) को अवश्य हटा लेना चाहिए क्योंकि शांति की
ओर बढ़ रहे राज्य में यह अधिनियम सुरक्षा बलों को व्यापक अधिकार देता
है।कश्मीरियों को लगता है कि वर्ष 1990 से लागू किए गए इस अधिनियम ने
जम्मू एवं कश्मीर को आतंकवाद का एक तमगा दे दिया है जबकि राज्य में शांति
तेजी से बहाल हो रही है और घाटी में पर्यटक लौटने लगे हैं। लोगों को लगता
है कि जिन परिस्थितियोंमें इस कानून को लागू किया गया था अब वे स्थितियां
नहीं रही इसलिए अब इस कानून की भी जरूरत नहीं है। श्रीनगर में एक पर्यटक
हाउसबोट चलाने वाले अब्दुर रहमान ने संवाददाता से पूछा, "यहां तक कि
पश्चिमी देशों ने अपने नागरिकों को कश्मीर न जाने की सलाह को वापस लेना
शुरू कर दिया है। जब सरकार खुद शांति बहाल का गुणगान करती है तो हमें
एएफएसपीए की जरूरत क्यों है?"
रहमान जैसे अन्य लोगों का भी यही मानना है कि मुस्लिम बहुल वाले और 1.02
करोड़ से अधिक आबादी वाले राज्य में एएफएसपीए को जारी रखने का कोई ठोस
आधार नहीं है। यह अधिनियम जुलाई 1990 में उस समय लगाया गया था जब
पाकिस्तान समर्थित आतंकवादी घुसपैठ चरम पर था। राज्य पुलिस और अर्धसैनिक
बलों द्वारा आंतकवादी घटनाओं को रोके जाने में असमर्थ रहने के बाद सेना
की सहायता ली गई थी क्योंकि आतंकवादियों की संख्या और ताकत बढ़ती जा रही
थी। अब दो दशक के बाद हालात में काफी सुधार हो चुका है। हिंसा और
आतंकवादी हमले इन सालों में कम हुए हैं। शहरों में ऐसे हमले लगभग खत्म हो
चुके हैं।
आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पूरे राज्य में अब 500 से भी कम आतंकवादी
बचे हैं। सभी शीर्ष कमांडर मारे जा चुके हैं अथवा पाकिस्तान भाग गए हैं।
राज्य में इस कानून का गलत इस्तेमाल करते हुए मानवाधिकार के कथित उल्लंघन
के मामले में सेना की आलोचना हुई है। आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक पिछले
दो दशकों में सेना के खिलाफ मानवाधिकार उल्लंघन के 1,500 से ज्यादा मामले
दर्ज किए गए हैं। वहीं सेना का दावा है कि इनमें अधिकतर करीब 97 प्रतिशत
मामले 'झूठे अथवा प्रायोजित' हैं।