युग पुरुष मास्टर मित्र सेन
धर्मशाला, 26 दिसंबर (विजयेन्दर शर्मा) । मास्टर मित्रसेन का जन्म 29 दिसंबर 1895 को कांगड़ा जिला (तत्कालीन पंजाब के राज्य का भाग) के मुख्यालय धर्मशाला स्थित तोतारानी धारा खोला नामक स्थान में हुआ। मित्रसेन के पिता का नाम श्री मनबीर सेन थापा था सन 1905 के कांगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश में भारी भूकंप के कारण धर्मशाला स्थित बहुत सारे घर मकान तबाह हो गए, जान माल काफी क्षति हुई। मास्टर मित्र सेन का परिवार भी इससे अछूता न रहा। मित्र सेन में बाल्यकाल से ही भगवान शंकर में आस्था थी। सम्भवतः पवित्र देव भूमि से माता पिता की धार्मिक आध्यात्मिक व राष्ट्रवादी प्रवत्ति के कारण मास्टर मित्रसेन थापा ने देश को हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, नेपाली भाषा, साहित्य, संगीत एवं कला के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। सर्वविदित है भारत की राष्ट्रीय गान की धुन 'जनगणमन' के निर्माता आज़ाद हिन्द के कैप्टन राम सिंह ठाकुर उन्हीं के शिष्य व प्रेरणास्रोत थे।
पिता से देवनागरी वर्ण माला का ज्ञान एवं भानु भक्त रामायण के श्लोकांे की स्वर की शिक्षा प्राप्त हुई। मास्टर मित्र सेन थापा धर्मशाला के किसी भी स्थान पर भजन-कीर्तन, कथा-पुराण रामलीला इत्यादि कार्यक्रम होने पर मित्रसेन उसे सुनने देखने को हमेशा उत्सुक रहते थे। मास्टर मित्र सेन जी ने ब्रिटिश सेना में केवल 8 वर्ष सेवा दी। प्रथम विश्व युद्ध में मित्रसेन को मध्य यूरोप (फ्रांस) विदेश भ्रमण की जानकारी उनके निबंधों एवं उनकी डायरी से मिलती है। युद्ध में भीषण रक्तपात एवं कारुणिक दृश्यों से मित्रसेन जी का मन विचलित हो उठा और सन 1920 में मित्रसेन ने सैनिक जीवन का त्याग कर दिया। उर्दू आदि नाटकों का धर्मशाला, पालमपुर, काँगड़ा, शाहपुर, कोटला, नूरपुर, पठानकोट, बटाला आदि स्थानों में सफल मंचन किया व ख्याति प्राप्त की। उनकी नाटक रचनाआंे में हिंदी, उर्दू भाषा मंे विल्बामंगल, दर्दे ज़िगर, नूर की पुतली, मशर की हूर, बादशाह टावर आदि शामिल थे। मित्रसेन की कला की प्रतिभा एवं ख्याति से प्रभावित होकर सनातन धर्म प्रतिनिधिसभा लाहौर ने उन्हें धर्म उपदेशक के रूप में कार्य करने का अनुरोध किया। मास्टर मित्र सेन पंजाब में आर्य समाज से भी सम्बद्ध रहे व प्रतिनिधि के रूप में हिन्दू समाज के लिए कार्य किया। मित्रसेन ने 1928 से 1931 तक सनातन धर्म का प्रचार किया। मित्र डायरी से ज्ञात होता है कि उन्होंने 1938 के प्रारम्भ में देहरादून के नेहरू ग्राम का भ्रमण कर तीन महीने के प्रवास में विभिन्न नाटक व भजन कीर्तन का आयोजन किया। देश के विख्यात धार्मिक विद्वानों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आने से उनके व्यंितव में अद्भुत निखार आया। इस बीच लाला लाजपतराय के ऊपर हुए लाठी प्रहार, महात्मा गांधी का नमक सत्याग्रह आंदोलन एवं सरदार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने की घटना से मित्रसेन के मन में देशप्रेम और राष्ट्रवादीता की भावना प्रबल होती गयी। भारत के विभिन्न स्थानों में रहने वाले गोरखाली समुदाय के लोगांे से सम्पर्क स्थापित करने हेतु शिलांग, देहरादून, कुईटा, एबटाबाद, बकलोह, धारीवाल, बनारस, कलकत्ता, दार्जिलिंग, गोरखपुर, नौतनवा आदि स्थानों का भ्रमण किया। मित्रसेन वर्ष में 4 महीने घर पर रहकर प्रचार सामग्री का लेखन एवं उसे सुरताल में बांधकर अभ्यास करते तथा शेष 8 महीने गोरखा रेजिमेंट (सेना) तथा सैनिक छावनियों के आसपास स्थित गोरखा बस्तियों में भ्रमण कर गीत-संगीत-व्यख्यान-नाटक प्रदर्शन द्वारा राष्ट्रवाद, धर्म प्रचार एवं समाज सुधार का कार्य करते थे। महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश नाटक मंचन, अभिनय द्वारा गाकर श्रद्धालुओं को भावविभोर करते राष्ट्र भावना जगाते थे। कथा-व्याख्यान के बीच में पूर्व पूर्वजों के अनुपम साहस एवं बलिदान की गाथाएं गाकर प्रस्तुत करते, व्यंगात्मक शैली में और लोक गीतों का समावेश कर लोगों को नीतिपरक उपदेश देते थे। इस निरंतर भ्रमण काल में वह अस्वस्थ हो गए तथा 1940 से लगभग चार वर्ष तक वह स्वास्थ्य लाभ लेते रहे। इसी बीच उन्होंने अनेक कृतियों की रचना की। 9 अप्रैल 1946 को मास्टर मित्रसेन नश्वर देह को त्याग परलोक गमन कर गए।
मास्टर मित्रसेन द्वारा रचित गीत, कविता, भजन तथा गजल में भक्ति, धार्मिक व आध्यात्मिक भावना की रचना शैली झलकती है। उन दिनों हिंदुस्तानी गीत संगीत के प्रभाव में रचे बसे नेपाली समाज को नेपाली धुन में प्रचलित लोकभाषा, स्थानीय विषय वस्तु, लोकभावना व लोक वाद्य यंत्र का प्रयोग करके उन्होंने लोकप्रिय बनाया।
मास्टर मित्रसेन की पद्य गद्य में प्रायः गायन शैली का प्रयोग मिलता है। शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रूचि थी। गीत, भजन, गजल आदि में शुद्धि, कफी बागेश्वरी, भैरवी, भोपाली आदि राग आधारित तथा तीनताल, खेमटा, दिप चंदी आदि ताल लयबद्ध गायन कर्णप्रिय व हृदयस्पर्शी संगीत के माध्यम से प्रकट होती है।
"गीता श्लोक कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन" का रूपांतरण इस प्रकार किया है:-
फल की ईच्छा दिल में न रख निष्काम सेवा करते जाओ, दिन हीन होकर मांगने से अच्छा है दानी बनकर जीना
महाभारत ग्रंथ में कवि मित्रसेन जी अपना विचार प्रस्तुत करते हैं:-
भक्ति, योग तथा ज्ञान कर्म का मार्ग बताना
बंधन से मुक्ति करने, निति पुराण महा भारत
पापी मित्र की आंख खोलना पुण्य पुनीत महाभारत
भगवन बुध के अमृत वचन
भगवन बुध के अमृत वचन को भी सरल भाव से प्रस्तुत किया गया है
राग के समान कोई आग नहीं,
द्वेष में कोई अरिष्ट ग्रह नहीं
मोह के समान कोई नदी नहीं
बड़े गर्व की बात है मास्टर मित्र सेन जी का आलेख अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में स्वराज संघर्ष में हिमाचल के नेपथ्य नायक नामक पुस्तक जिसे हिमाचल प्रदेश के महा महिम राज्यपाल श्री राजेंदर विश्नाथ अर्लेकर द्वारा 04 दिसम्बर 2021 को शोध संस्थान नेरी हमीरपुर में विमोचन किया गया में भी स्थान मिला।
धर्मशाला, 26 दिसंबर (विजयेन्दर शर्मा) । मास्टर मित्रसेन का जन्म 29 दिसंबर 1895 को कांगड़ा जिला (तत्कालीन पंजाब के राज्य का भाग) के मुख्यालय धर्मशाला स्थित तोतारानी धारा खोला नामक स्थान में हुआ। मित्रसेन के पिता का नाम श्री मनबीर सेन थापा था सन 1905 के कांगड़ा जिला हिमाचल प्रदेश में भारी भूकंप के कारण धर्मशाला स्थित बहुत सारे घर मकान तबाह हो गए, जान माल काफी क्षति हुई। मास्टर मित्र सेन का परिवार भी इससे अछूता न रहा। मित्र सेन में बाल्यकाल से ही भगवान शंकर में आस्था थी। सम्भवतः पवित्र देव भूमि से माता पिता की धार्मिक आध्यात्मिक व राष्ट्रवादी प्रवत्ति के कारण मास्टर मित्रसेन थापा ने देश को हिंदी, उर्दू, फ़ारसी, नेपाली भाषा, साहित्य, संगीत एवं कला के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया। सर्वविदित है भारत की राष्ट्रीय गान की धुन 'जनगणमन' के निर्माता आज़ाद हिन्द के कैप्टन राम सिंह ठाकुर उन्हीं के शिष्य व प्रेरणास्रोत थे।
पिता से देवनागरी वर्ण माला का ज्ञान एवं भानु भक्त रामायण के श्लोकांे की स्वर की शिक्षा प्राप्त हुई। मास्टर मित्र सेन थापा धर्मशाला के किसी भी स्थान पर भजन-कीर्तन, कथा-पुराण रामलीला इत्यादि कार्यक्रम होने पर मित्रसेन उसे सुनने देखने को हमेशा उत्सुक रहते थे। मास्टर मित्र सेन जी ने ब्रिटिश सेना में केवल 8 वर्ष सेवा दी। प्रथम विश्व युद्ध में मित्रसेन को मध्य यूरोप (फ्रांस) विदेश भ्रमण की जानकारी उनके निबंधों एवं उनकी डायरी से मिलती है। युद्ध में भीषण रक्तपात एवं कारुणिक दृश्यों से मित्रसेन जी का मन विचलित हो उठा और सन 1920 में मित्रसेन ने सैनिक जीवन का त्याग कर दिया। उर्दू आदि नाटकों का धर्मशाला, पालमपुर, काँगड़ा, शाहपुर, कोटला, नूरपुर, पठानकोट, बटाला आदि स्थानों में सफल मंचन किया व ख्याति प्राप्त की। उनकी नाटक रचनाआंे में हिंदी, उर्दू भाषा मंे विल्बामंगल, दर्दे ज़िगर, नूर की पुतली, मशर की हूर, बादशाह टावर आदि शामिल थे। मित्रसेन की कला की प्रतिभा एवं ख्याति से प्रभावित होकर सनातन धर्म प्रतिनिधिसभा लाहौर ने उन्हें धर्म उपदेशक के रूप में कार्य करने का अनुरोध किया। मास्टर मित्र सेन पंजाब में आर्य समाज से भी सम्बद्ध रहे व प्रतिनिधि के रूप में हिन्दू समाज के लिए कार्य किया। मित्रसेन ने 1928 से 1931 तक सनातन धर्म का प्रचार किया। मित्र डायरी से ज्ञात होता है कि उन्होंने 1938 के प्रारम्भ में देहरादून के नेहरू ग्राम का भ्रमण कर तीन महीने के प्रवास में विभिन्न नाटक व भजन कीर्तन का आयोजन किया। देश के विख्यात धार्मिक विद्वानों एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आने से उनके व्यंितव में अद्भुत निखार आया। इस बीच लाला लाजपतराय के ऊपर हुए लाठी प्रहार, महात्मा गांधी का नमक सत्याग्रह आंदोलन एवं सरदार भगत सिंह को फांसी पर लटकाने की घटना से मित्रसेन के मन में देशप्रेम और राष्ट्रवादीता की भावना प्रबल होती गयी। भारत के विभिन्न स्थानों में रहने वाले गोरखाली समुदाय के लोगांे से सम्पर्क स्थापित करने हेतु शिलांग, देहरादून, कुईटा, एबटाबाद, बकलोह, धारीवाल, बनारस, कलकत्ता, दार्जिलिंग, गोरखपुर, नौतनवा आदि स्थानों का भ्रमण किया। मित्रसेन वर्ष में 4 महीने घर पर रहकर प्रचार सामग्री का लेखन एवं उसे सुरताल में बांधकर अभ्यास करते तथा शेष 8 महीने गोरखा रेजिमेंट (सेना) तथा सैनिक छावनियों के आसपास स्थित गोरखा बस्तियों में भ्रमण कर गीत-संगीत-व्यख्यान-नाटक प्रदर्शन द्वारा राष्ट्रवाद, धर्म प्रचार एवं समाज सुधार का कार्य करते थे। महाभारत, श्रीमद्भागवत गीता का उपदेश नाटक मंचन, अभिनय द्वारा गाकर श्रद्धालुओं को भावविभोर करते राष्ट्र भावना जगाते थे। कथा-व्याख्यान के बीच में पूर्व पूर्वजों के अनुपम साहस एवं बलिदान की गाथाएं गाकर प्रस्तुत करते, व्यंगात्मक शैली में और लोक गीतों का समावेश कर लोगों को नीतिपरक उपदेश देते थे। इस निरंतर भ्रमण काल में वह अस्वस्थ हो गए तथा 1940 से लगभग चार वर्ष तक वह स्वास्थ्य लाभ लेते रहे। इसी बीच उन्होंने अनेक कृतियों की रचना की। 9 अप्रैल 1946 को मास्टर मित्रसेन नश्वर देह को त्याग परलोक गमन कर गए।
मास्टर मित्रसेन द्वारा रचित गीत, कविता, भजन तथा गजल में भक्ति, धार्मिक व आध्यात्मिक भावना की रचना शैली झलकती है। उन दिनों हिंदुस्तानी गीत संगीत के प्रभाव में रचे बसे नेपाली समाज को नेपाली धुन में प्रचलित लोकभाषा, स्थानीय विषय वस्तु, लोकभावना व लोक वाद्य यंत्र का प्रयोग करके उन्होंने लोकप्रिय बनाया।
मास्टर मित्रसेन की पद्य गद्य में प्रायः गायन शैली का प्रयोग मिलता है। शास्त्रीय संगीत में उनकी गहरी रूचि थी। गीत, भजन, गजल आदि में शुद्धि, कफी बागेश्वरी, भैरवी, भोपाली आदि राग आधारित तथा तीनताल, खेमटा, दिप चंदी आदि ताल लयबद्ध गायन कर्णप्रिय व हृदयस्पर्शी संगीत के माध्यम से प्रकट होती है।
"गीता श्लोक कर्मण्ये वाधिकारस्ते माँ फलेषु कदाचन" का रूपांतरण इस प्रकार किया है:-
फल की ईच्छा दिल में न रख निष्काम सेवा करते जाओ, दिन हीन होकर मांगने से अच्छा है दानी बनकर जीना
महाभारत ग्रंथ में कवि मित्रसेन जी अपना विचार प्रस्तुत करते हैं:-
भक्ति, योग तथा ज्ञान कर्म का मार्ग बताना
बंधन से मुक्ति करने, निति पुराण महा भारत
पापी मित्र की आंख खोलना पुण्य पुनीत महाभारत
भगवन बुध के अमृत वचन
भगवन बुध के अमृत वचन को भी सरल भाव से प्रस्तुत किया गया है
राग के समान कोई आग नहीं,
द्वेष में कोई अरिष्ट ग्रह नहीं
मोह के समान कोई नदी नहीं
बड़े गर्व की बात है मास्टर मित्र सेन जी का आलेख अमृत महोत्सव के उपलक्ष्य में स्वराज संघर्ष में हिमाचल के नेपथ्य नायक नामक पुस्तक जिसे हिमाचल प्रदेश के महा महिम राज्यपाल श्री राजेंदर विश्नाथ अर्लेकर द्वारा 04 दिसम्बर 2021 को शोध संस्थान नेरी हमीरपुर में विमोचन किया गया में भी स्थान मिला।