ज्वालामुखी 17 अप्रैल (विजयेन्दर शर्मा ) । एक ऐसी राजनीतिक शख्सियत जो अपनी ईमानदारी और सादगी के लिए जाने जाते हैं। सन 1937 में जन्मे केवल सिंह पठानिया 2 बार विधायक तथा एक बार कबीना मंत्री रहने के बावजूद पुश्तैनी स्लेटपोश घर में रहते हैं और खेतीबाड़ी करते हैं। आज भी उनकी पत्नी शकुंतला देवी के साथ उन्हें हल्दी की फसल साफ करते हुए देखा जा सकता है। वयोवृद्ध नेता केवल सिंह पठानिया ने कहा कि सत महाजन प्रदेश की राजनीति में चतुर राजनीतिज्ञ थे। जब भी वह प्रदेश की राजनीति पर कब्जा करने के लिए राजनीतिक पहाड़ बनाने की सोचते थे तो पहाड़ की चोटी पर उनको सिर्फ मेरी ही याद आती थी। उनको यही लगता था प्रदेश की राजनीति में टॉप पर पहुंचने के बीच केवल पठानिया उनके रास्ते का रोड़ा न बन जाएं क्योंकि 2 बार वह मुझसे हार चुके थे और 2 बार उनकी जीत महज थोड़े अंतर से हुई। उन्होंने कहा कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह को भी पता था कि यदि केवल और सत महाजन इकट्ठे हो गए तो सत महाजन को प्रदेश की राजनीति में चोटी पर पहुंचने से रोकना मुश्किल है।
85 साल के हो चुके केवल सिंह पठानिया आज भी सुबह 6 बजे उठते हैं। रोज 10 किलोमीटर पैदल चलते हैं और खेतीबाड़ी कर 9 बजे तक तैयार होकर किसी पंचायत में निकल जाते हैं तथा लोगों के बीच समय बिताते हैं। बकौल केवल सिंह लोगों के बीच रहना ज्यादा सुकून देता है। कबड्डी व हॉकी के खिलाड़ी रहे केवल कभी शिकार करने के भी शौकीन रहे हैं
सन 1977 में कांग्रेस फॉर डैमोक्रेसी पार्टी के अध्यक्ष बाबू जगजीवन राम थे। तब पार्टी का समझौता जनता पार्टी के साथ हुआ था। उस दौरान केवल सिंह पठानिया ने प्रदेश में धुरंधर नेता रहे कौल सिंह, सुजान सिंह पठानिया, गुलाब सिंह ठाकुर, कश्मीर सिंह व गंगा राम आदि को 22 टिकटें बांटी थीं लेकिन उस चुनाव में केवल सिंह पठानिया खुद हार गए।
केवल सिंह पठानिया को भले ही राजनीति विरासत में मिली लेकिन कांग्रेसी परिवार से होने के बावजूद केवल सिंह पठानिया ने आजाद या अन्य दलों से चुनाव लड़े। सन 1968 में केवल सिंह पठानिया पहली बार ब्लॉक समिति के अध्यक्ष चुने गए। 1972 में उन्होंने पहला विधानसभा का चुनाव आजाद लड़ा, जिसमें उन्होंने सत महाजन को पहली बार हराया। सत महाजन को हराने के बाद भी उनको कांग्रेस ने पार्टी में शामिल नहीं किया क्योंकि सत महाजन की ताजपोशी प्रदेशाध्यक्ष की हो चुकी थी। उसके बाद 1977 में जनता पार्टी और 1982 में आजाद प्रत्याशी के तौर पर वह सत महाजन से चुनाव हार गए। 1985 में तो वीरभद्र के कहने पर पठानिया चुनाव नहीं लड़े लेकिन जब 1989 में भी वीरभद्र का दबाव पठानिया पर चुनाव न लडऩे का बढ़़ा तो पठानिया ने एक बार फिर कांग्रेस छोड़ कर जनता दल के झंडे तले चुनाव लड़ा और सत महाजन को हराया। उसके बाद 1993 में जनता दल का विलय कांग्रेस पार्टी में हुआ तो पठानिया ज्वालामुखी से चुनाव जीते तथा कांग्रेस सरकार में परिवहन मंत्री बने। 1998 में ज्वालामुखी से केवल सिंह को हार का मुंह देखना पड़ा। उसके बाद 2003 में उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा तथा 2007 में बसपा के झंडे तले चुनाव लड़ा।